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गुरुवार, 3 सितंबर 2020

एक यादगार मुसाफिर

   

    यात्रा करने के साधन तो बहुत से है पर मुझे सबसे आरामदायक और मनोरंजक  सफर ट्रेन का ही लगता था और हैं भी। पहले तो वैसे भी हवाई यात्रा सबके बस की बात नहीं थी और बस या कार से सफर करना मुझे बिलकुल अच्छा नही लगता। अगर लम्बी यात्रा हो तो ट्रेन के क्या कहने,  12 -15 घंटे के लम्बे सफर में ट्रेन  का वो कम्पार्टमेंट घर जैसा एहसास देने लगता है और सफर में जो अजनवी साथ होते हैं वो जन्मों के बिछुँड़ें साथी से लगने लगते हैं (ये मैं बीते ज़माने की बात कर रही हूँ)। ट्रेन की झुकझुक आवाज़ संगीत की एक अनोखे साज से निकली मधुर आवाज़ लगती है। बस्ती ,जंगल ,नदी और पहाड़ों  को पार करती ये झुकझुक गाड़ी कई  मनोरम दृश्यों का दर्शन करा देती है। रात के सन्नाटों को चीरती जब ये तेज़ गति से अपनी  पटरियों पर दौड़ रही होती है तो ऐसा लगता है जैसे कोई मलंग अपनी ही मस्तियों में डूबा हुआ अपनी मंजिल की ओर बे -खौफ बढ़ा जा रहा है।
   मेरी ज्यादातर यात्राएं पापा के साथ ही हुई है क्योँकि पापा की लाड़ली थी तो वो हर जगह मुझे ही अपने साथ लिए घूमते थे। घर में इस बात के लिए दादी के ताने भी सुनने को मिलता था, वो हमेशा पापा को ताना देती -" बेटी को इंदिरा गांधी बना रखा है जहाँ जाता है बेटी को साथ लिए फिरता है " मगर पापा को इससे फर्क नहीं पड़ता था, उन्हें तो मेरे बिना कोई सफर करना ही नहीं था।
     पापा के साथ ऐसे ही एक सफर में एक अजनवी से मुलाकात हो गई थी, एक ऐसा मुसाफिर जिसकी हल्की  झलक आज भी याद आ ही जाती है। बात उन दिनों की है जब मैं 10 वी में थी, 15 साल की उम्र थी मेरी मगर लड़का-लड़की के प्रति आकर्षण वाले एहसास से मेरा मन अब तक अछूता था। कोई लड़का मुझे देख रहा है इस बात का ना मुझे एहसास ही होता था ना ही मैं इसकी परवाह करती थी। अपनी ही मस्ती में मग्न, जो मिला उसी के साथ बातों में मसगुल हो जाना, ठहाकें लगाना बस यही आता था मुझे, मेरा बचपना मुझ पर अभी तक हावी था, अब इसके लिए कौन मुझे कैसे देख रहा हैं या क्या सोच रहा है, मेरे पीढ़ पीछे क्या बोल रहा है, इससे मैं बे-खबर रहती थी। मेरी इन्ही आदतों के कारण सफर में भी मैं बहुत जल्दी सबसे घुल-मिल जाती थी, वो हम-उम्र हो ,बच्चा हो या बूढ़ा फर्क नहीं पड़ता था, सब मेरे दोस्त बन जाते थे। 
    तो मेरे इस सफर के दौरान भी कुछ ऐसा ही हुआ, हमारे साथ कपार्टमेन्ट में एक परिवार था तीन बच्चें और पति पत्नी, मैं उन सब के साथ बड़ी जल्दी घुलमिल गई और मेरी मस्ती शुरू हो गई। उसी कम्पार्टमेंट में 17 -18 साल का एक लड़का भी बैठा था, आकर्षक व्यक्तित्व था उसका मगर बेहद शांत और गंभीर। हाँ,हम सब जब बातें करते तो वो बीच-बीच में थोड़ा बहुत बोल लेता था या हल्की मुस्कान बिखेर देता था।मुझे ऐसे लोग बिलकुल पसंद नहीं थे, मुझे तो हंसी ठहाकें लगाने वाले जिंदादिल लोग पसंद थे पर पता नहीं क्युँ, वो मुझे थोड़ा-थोड़ा अच्छा लग रहा था।
    खैर ,सफर के दौरान मैंने गौर किया कि-जब से मैं ट्रेन में बैठी थी ये महाशय चोरी छिपे मुझे ही देखें जा रहें थे। मुझे ऐसे लोग भी बिलकुल पसंद नहीं थे सो, मैंने उन्हें इग्नोंर किया और बच्चों के साथ लगी रही और उसकी निगाहें मुझ पर टिकी रही। जब मैं उसे घूरने लगती तो हल्की सी मुस्कान के साथ नजरें नीची कर लेता। ऐसा नहीं था कि -पहली बार कोई लड़का मुझे घूर रहा था मगर उसमे कुछ अलग बात तो थी और सब से आकर्षक थी उसकी शालीनता। पापा से तो वो खूब बातें करता पर मुझसे बिलकुल नहीं। रात हुई हम सबने साथ ही मिल-बाँटकर खाना खाया, वो खाना नहीं लाया था तो पापा मुझे उसे भी खाना देने को बोले, मैंने दो पराठे और सब्जी उसे भी दे दी, वो मुस्कुराते हुए थैंक्यू कह कर ले लिया। खा-पीकर सब अपने-अपने बर्थ पर सोने चले गए। वो ठीक मेरे सामने वाले बर्थ पर था और लगातार एक हलकी मुस्कान लिए मुझे देखें ही जा रहा था। उसकी निगाहों में कुछ तो था जो मुझे भी असहज कर दे रहा था। ऐसा मुझे पहली बार महसूस हो रहा था सो और भी अजीब लग रहा था। मैं बार-बार मुँह फेर कर सो जाने की कोशिश कर रही थी मगर मुँह फेरने के बाद भी मैं उसकी निगाहों से खुद को बचाने में असमर्थ हो रही थी। वो कोई गलत हरकत नहीं कर रहा था मगर उसकी मुस्कुराती नजरें बहुत कुछ बोलने में समर्थ थी।
    मैंने सोचा अब मैं इसे घूरना शुरू करती हूँ तो शायद वो अपना मुँह फेर ले, मैं भी उसकी तरफ एकटक  देखने लगी मगर मेरे साथ ऐसा पहली बार हुआ कि -मैं ज्यादा देर उससे नजरें नहीं मिला पाई, फिर अपनी आँखें बंद करना ही मुझे उचित लगा। मैं अपनी आँखें भींचे सोने की कोशिश करने लगी। मगर जब नींद खुलती तो देखती कि -उसकी आँखें तो अब भी मुझ पर ही टिकी है। खैर, इस आँख-मिचौली में मैं कब गहरी नींद सो गई मुझे पता ही नहीं चला।
    सुबह जब मेरी आँख खुली तो देखती हूँ कि-सामने का बर्थ खाली है, मुझे लगा शायद वो बाथरूम गया होगा। बाकी सभी लोग अभी सो ही रहे थे। तभी मेरी नजर मेरी उंगलियों के बीच फंसी एक पर्ची पर गई, दो सेकेण्ड के लिए मैं बुरी तरह सिहर गई ,बड़ी हिम्मत करके मैंने इधर-उधर देखकर वो पर्ची खोली, उसमे लिखा था -"रानी, तुममे मुझे अपनी  "सोलमेड" नजर आ गई है...एक रात में ही मैं तुम्हे बेहद प्यार करने लगा हूँ...अगर तुम्हारे दिल में भी मेरे लिए कोई फिलिंग आ गई है तो प्लीज़ इस नंबर पर मुझे फोन करना...मैं बेसब्री से तुम्हारे फोन का इंतज़ार करुँगा...मैं तुम्हें अपना नाम नहीं बताऊँगा...अगर कॉल करोगी तब तो मेरा नाम जान ही जाओगी.. अगर नहीं कर पाओगी तो एक अजनवी समझ भूल जाओगी।" ये दो लाईन पढ़ते-पढ़ते मुझे महसूस हुआ कि-मेरी पलकें गीली हो गई है,ऐसा कैसे हुआ, क्युँ हुआ, समझ ही नहीं पाई।
    मैंने उस पर्ची को छुपाकर अपने पर्स में रख लिया। वो कौन था, कहाँ से आ रहा था, कहाँ उतर गया, उसका नाम क्या था मैं कुछ नहीं जान पाई थी। मगर मेरे बक-बक करने के कारण वो मेरे बारे में सब कुछ जान चुका  था। सफर खत्म हुआ और हम लौटकर अपने घर आ गए,कई महीनों तक वो पर्ची मेरे पास रही, रोज उसे खोलकर पढ़ती और सोचती -" कॉल करूँ क्या?" पर हमारे संस्कारों ने मुझे ये करने की इजाजत नहीं दी, मैं अपने पापा के विश्वास को नहीं तोड़ सकती थी। उस दौर में छोटी उम्र में किसी लड़के के बारे में सोचना भी गुनाह था,छोटी उम्र क्या हम लड़कियों को खुद के पसंद का लड़का चुनना तो पाप ही समझा जाता था, हम लड़कियों को ऐसे ही संस्कार मिले थे। एक दिन हिम्मत करके वो पर्ची मैंने फाड़कर फेक ही दी, मेरे पापा के मान -मर्यादा से बड़ा मेरे लिए कोई नहीं था ना है। कई बार ऐसा लगता कि -कही वो मेरे घर तक तो नहीं आ जाएगा क्योँकि पापा से बातों-बातों में वो सब कुछ जान चुका था। मगर वो नहीं आया, यकीनन उसे मेरी "पहल" का इंतज़ार होगा। 
    आज भी ट्रेन के सफर के दौरान कोई लड़का किसी लड़की को टकटकी बाँधे देख रहा होता है तो उस मुसाफिर की याद आ ही जाती है। 




30 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 04-09-2020) को "पहले खुद सागर बन जाओ!" (चर्चा अंक-3814) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.

    "मीना भारद्वाज"

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    1. मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदयतल से आभार मीना जी

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  2. बड़ा दुस्साहसी लड़का था। खैर, भला हो उसका, एक मोहक संस्मरण पकड़ा गया।

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    1. सहृदय धन्यवाद विश्वमोहन जी ,जहाँ सच्चाई और ईमानदारी होती है वहाँ "साहस" खुद-ब-खुद आ ही जाता है,सराहना के लिए हृदयतल से आभार,सादर नमन आपको

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  3. बहुत भावपूर्ण संस्मरण प्रिय कामिनी | जिस इमानदारी से तुमने लिखा , वह दुस्साहस ही कहा जाएगा | किशोरवय के ये सुहाने अछूते मन के अनुभव शब्दों में नहीं समाते | साधारण सफ़र का असाधारण प्रभावी संस्मरण | शुभकामनाएं और आभार सखी |

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    1. इस संस्मरण को साझा करने के पीछे मेरा बस यही भाव था कि -"ऐसे नाजुक पल सबके जीवन में एक बार तो जरूर आता ही है,आप उससे निपटाते कैसे है निर्भर आप पर करता है" आज कल के युवापीढ़ी सिर्फ मौज-मस्ती में ही डूबकर परिवार का अहित कर बैठते है और हमारी पीढ़ी के लिए सर्वोपरि हमारा परिवार ही होता था। बस सखी, इसी विचार के आते ही मैंने अपना ये संस्मरण आप सभी से साझा करने का "दुस्साहस" कर लिया।तुमने सराहा इसके लिए दिल से शुक्रिया सखी

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  4. आदरणीया कामिनी सिन्हा जी, किशोरावस्था की दहलीज पर यादों के सफरनामे का सुंदर वर्णन। हार्दिक साधुवाद!--ब्रजेन्द्रनाथ

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    1. सहृदय धन्यवाद सर,आपकी उपस्थिति से लेखन सार्थक हुआ,सादर नमन आपको

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  5. यात्रा का सजीव चित्रण कर दिया आप ने

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    1. सहृदय धन्यवाद सर,प्रोत्साहित करती आपकी प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार ,सादर नमन आपको

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  6. वाह ! पढ़कर बहुत मजा आया। ये दुस्साहस नहीं है, दूसरों को भी अपने ऐसे संस्मरण लिखने को उकसाने की साजिश 😊 है। यही है असली ब्लॉगर की पहचान ! अब याद कर रही हूँ, कभी ऐसा कुछ हुआ था क्या मेरे भी साथ ? वैसे हमारी पीढ़ी ही नहीं आज की पीढ़ी में भी ऐसे लड़के लड़कियाँ हैं जिनके लिए माता पिता की इज्जत सर्वोपरि है। संस्मरण लिखने में आपको महारत हासिल है।
    बहुत सारे स्नेह के साथ।

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    1. सहृदय धन्यवाद मीना जी,बहुत दिनों बाद आपको देखकर बेहद ख़ुशी हो रही है। ये आपने बिलकुल सही कहा ,"ये दुस्साहस नहीं है, दूसरों को भी अपने ऐसे संस्मरण लिखने को उकसाने की साजिश है" क्यों दिल में दबाये रहे,अब आप भी अपनी लेखनी से अपने कुछ राज उकेर ही दीजिए। इंतज़ार रहेगा मुझे।आपकी इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार ,सादर नमन आपको

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  8. ऐसा राज राज नहीं रहना चाहिए जो सबके लिए शिक्षाप्रद हो आज के बच्चे भी अपने को रिलेट कर क्षणिक आवेश में न आकर अपनों के खातिर थोड़ा संयमित होना सीखेंगे .....आगे तो जीवन में वही होता है जो नसीब में लिखा है.....।
    बहुत ही लाजवाब संस्मरण हेतु बधाई एवं शुभकामनाएं।

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    1. सहृदय धन्यवाद सुधा जी,कभी कभी नई पीढ़ी को राह दिखाने के लिए अपने कई राज खोलने भी पड़ते हैं। आपकी इस स्नेहिल प्रतिक्रिया से लेखन को बल मिला।दिल से शुक्रिया एवं सादर नमन

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  9. सच में पापा की दुलारी होती हैं बेटियां और दादी - मम्मी यूं ही कहती रहती हैं । सीख भरा सुन्दर संस्मरण ।


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    1. दिल से शुक्रिया मीना जी,आपकी सार्थक प्रतिक्रिया पाकर बेहद ख़ुशी हुई , सादर नमन आपको

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  10. भावनीना संस्मरण । इस स्मृति को साझा करने के लिए आभार आपका ।

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    1. सहृदय धन्यवाद संजय जी,काफी दिनों बाद आपको ब्लॉग पर देखकर अच्छा लगा

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  12. वाह... बहुत ही खूबसूरती से लिखा गया आलेख...। बधाई आपको

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  13. संघर्षों के बाद कलम में धार पाई है, तभी तो हर आलेख पर वाह वाह पाई है।

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