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मंगलवार, 23 अगस्त 2022

"मुंबई की लोकल ट्रेन"

   



   "मुंबई की लोकल ट्रेन" इससे कौन परिचित नहीं है। सर्वे बताती है कि रोजाना  लगभग 75 लाख लोग इस ट्रेन से सफर करते हैं। तो मान ले कि-एक दिन में स्विट्जरलैंड जैसे देश की पूरी आबादी और एक साल में संसार की एक तिहाई आबादी जितने लोग मुंबई लोकल ट्रेन से सफ़र कर लेते हैं। भले ही बहुत से देशों में बुलेट ट्रेन है जो बहुत ज्यादा स्पीड से दौड़ सकती है मगर वो "आमची मुंबई"की लोकल ट्रेनों के जैसे इतने यात्रियों को लेकर नहीं दौड़ सकती। इसलिए इसकी शान ही अनोखी है। 

   जब इतनी बड़ी आबादी हर दिन सफ़र करेगी तो जाहिर सी बात है कि लोगों को कई मुश्किलों का सामना भी करना पड़ता। पहले तो समय से  ट्रेन पकड़ने की लड़ाई, फिर खचाखच भरे ट्रेन में अजनबियों से धक्का-मुक्की कर अपने लिए खड़े भर रहने के लिए जगह की खातिर लड़ाई, एक बार ट्रेन में चढ़ जाने के बाद खुद को ट्रेन में दबने से बचाए रखने के लिए लगातार जोर आजमाइश, और फिर किसी तरह सफर पूरा कर लेने के बाद सही सलामत अपने गंतव्य स्टेशन पर उतरने की लड़ाई। ये लड़ाई तो वो लोग करते हैं जो अपना सफर सावधानी पूर्वक सुरक्षित तय करना चाहते हैं। लेकिन दरवाजे पर लटक कर सफर करने को मजबूर लोगों को तो अपनी जीवन रक्षा की लड़ाई भी लड़नी होती है। ये अलग बात है कि कुछ लोग हीरोपंती में और लापरवाहियों की वजह से अपनी जान गवा देते हैं। आँकड़ों के मुताबिक रोजाना 10 से 12 लोग इस लोकल ट्रेन के रास्ते में अपनी जान गवां देते हैं। 

   तो हम कहना ये चाहते हैं कि -मुंबई महानगर की जीवन रेखा "मुंबई की लोकल ट्रेन" ये सिर्फ एक सवारी गाड़ी नहीं है जो यात्रियों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक किफायती सफर कराती है बल्कि ये पटरियों पर दौड़ता हुआ एक शहर है। जिसमे सफर करना और सहयात्रियों के साथ निभाना भी एक कला है। यदि आप इस कला से वाकिफ नहीं है तो आपके लिए सफर दुस्कर ही नहीं होगा बल्कि एक दुःस्वप्न साबित होगा। 

 एक दिन मैंने भी किया था इस "मुंबई लोकल ट्रेन" में ऐसा सफर जो भुलाये नहीं भूलती।  

    मुंबई जाने के बाद सबसे ज्यादा उत्साहित मैं दो चीजों के लिए थी पहले मरीन ड्राइव जाने के लिए और दुसरा लोकल ट्रेन में सफर करने के लिए और ये दिनों काम हमने एक ही दिन किया।उस वक्त हम मीरा रोड में रहते थे। मेरी बेटी के कुछ दोस्त भी साथ रहते थे।हम दिन के 11-12 बजे के बीच निकलते और रात को 11-12 बजे ही लौटते।हम लोकल से कहीं भी जाते तो इसी टाइम टेबल से।उस वक्त भीड़ थोड़ी कम होती थी ‌। वैसे तो कई बार इस टाइम पर भी ज्यादा भीड़ का सामना करना पड़ा था,कई बार मैं भीड़ में दबी भी थी,कई बार मेरा ही दुपट्टा मेरे ही गले को जकड़ लिया करता था, लेकिन बेटी के लड़के दोस्त मुझे बचा लिया करते थे। मेरी बेटी के दोस्तों से मेरा रिश्ता बड़ा परफेक्ट है। एक तरह से मैं जगत माता हूँ यानि सबकी माँ और एक अच्छी दोस्त भी।सब मेरे साथ बहुत खुश भी होते हैं और मस्ती भी करते हैं।इस लिए वो जहाँ जाते तो मुझे साथ लेकर ही जाते और हम जहाँ भी जाते ज्यादातर लोकल से ही जाते।इस तरह मुझे लगता था कि लोकल ट्रेन के सफर का अनुभव हो गया था मुझे। लेकिन मैं ग़लत थी असली अनुभव होना अभी बाकी था।

     किस्सा तब शुरू होता है जब मुंबई से मेरी वापसी थी। मेरी ट्रेन बांद्रा टर्मिनस से थी। मीरा रोड से बांद्रा टैक्सी में जाना काफी खर्चीला था और लोकल से कुल मिलाकर कर 50-60 रुपए। मैंने थोड़ी कंजूसी की। बेटी का एक लड़का दोस्त जिसका नाम रजत है उसने भी मेरा साथ दिया।(रजत हमें बांद्रा तक छोड़ने आ रहा था) जबकि बेटी राज़ी नहीं थी। सफर में सावधानी बरतते हुए हमने टाइमिंग वही 11 बजे का तय किया। हमारी ट्रेन शाम को 4 बजे थी और हम 11 AM तक मीरा रोड के स्टेशन पर थे। हमारे पास 5 घंटे थे और सफर था बस 45-50 मिनट का। अपनी तरफ से पूरी होशियारी की थी हमने लेकिन मुंबई लोकल ने भी ठान रखी थी कि" वापस जा रही हो तो मेरे असली सफर की यादें तो साथ लेती जाओं"

    11 बजे से खड़े-खड़े 12 बज गए लेकिन एक भी ट्रेन में घुसने की गुंजाईस नहीं थी इतनी खचाखच भरी हुई थी। हमारे पास ज्यादा तो नहीं मगर सामान था एक बड़ा ब्रीफकेस और दो छोटे-छोटे बैग। ब्रीफकेस रजत के हाथ में था और बैग हम दोनों माँ-बेटी के हाथ में। जब 12 बज गए तो रजत ने कहा-आंटी हम उल्टी दिशा का ट्रेन पकड़ते हैं  यानि विरार के तरफ चलते हैं। क्योंकि उधर की ट्रेन थोड़ी खाली आ रही थी, विरार से फिर वही ट्रेन वापसी आती है। हमने जोड़-घटाव किया कि -विरार पहुंचने में आधा घंटा और फिर वहाँ से बांद्रा एक डेढ़ घंटे, कुल मिलकर हम दो घंटे में बांद्रा पहुंच जायेगे और हमारे पास अभी चार घंटे है। अच्छी तरह समझ-बूझकर हम विरार की ओर चल पड़ें। लेकिन पता नहीं था कि आगे क्या होने वाला है। 

    हमारी ट्रेन किसी कारणवश विरार ना जाकर उससे पहले वसई रोड के एक सुनसान स्टेशन पर जाकर रुक गई,पता चला ये ट्रेन नहीं जाएगी मुख्य स्टेशन से दूसरी ट्रेन पकड़ना होगा। और मुख्य स्टेशन की जो हालत थी उसे दूर से देखकर ही हमारे पसीने छूट गए। लेकिन दूसरा कोई रास्ता नहीं था अब यहाँ से टैक्सी पकड़ने का मतलब कि हम वक़्त पर पहुँचेगे या नहीं कोई गारंटी नहीं थी,हमें किसी भी तरह लोकल ही पकड़नी पड़ेगी। हर पाँच-दस मिनट के अंतर् पर आने वाली लोकल किसी कारणवश एक घंटे बाद आई। इन सब चक्करों में 1. 45 हो गया था तो जो ट्रेन आने वाला था उसे हमें किसी भी हाल में पकड़ना ही था। रजत ने कहा-आंटी आप दोनों लेडीज डब्बे में चढ़ जाए और मैं सामान वाले में चढ़ जाऊँगा। ये राय कर हम ट्रेन आते के साथ एक्शन में आ गए। रोज सफर करने वाले लोगों के आगे हम माँ-बेटी का टिकना एक जंग के सामान था। ट्रेन पर चढ़ते वक़्त वहाँ कोई किसी पर जल्दी मुरव्वत  नहीं करता। हम माँ-बेटी जैसे-तैसे ट्रेन में घुस गए। रजत के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी। ट्रेन चल पड़ी मैंने उसे जोर से आवाज लगाकर ब्रीफकेस पकड़ाने को कहा वो बेचारा चलती ट्रेन के साथ दौड़ता रहा मगर  ब्रीफकेस पकड़वाने में असफल रहा। 

    खैर,हम तो ट्रेन में और सामान छूट गया। थोड़ी देर बाद रजत का कॉल आया कि-10 मिनट में  ट्रेन आ रही है मैं वो पकड़ लूँगा आप चिंता ना करें ,सुनकर थोड़ी राहत हुई। दिल्ली के लिए हमारी ट्रेन 3. 50 में थी और हम बांद्रा पहुँच रहे हैं 3. 40 में। रजत का कोई अता-पता नहीं, फोन आने के बाद से ही उसका फोन स्वीचऑफ जा रहा था। लोकल से उतरते ही एक और आफत हमारा इंतज़ार कर रही थी। लोकल में सफर के दौरान कभी भी T.C से हमारा सामना नहीं हुआ था। मगर उस दिन उतरते ही T.C ने हमें पकड़ लिया और सीधे 1000 रूपये का जुर्माना कर दिया। हमारी लोकल की टिकट तो रजत के पास थी।  मैंने उस T.C को समझाने का बहुत प्रयास किया, दिल्ली की टिकट भी दिखाई मगर वो मानने को राजी नहीं थी। तभी किसी अनजाने नंबर से कॉल आया मुझे समझ आ गया कि वो रजत का है। रजत का ही था उसने कहा -आंटी मेरा अब वहाँ तक पहुँचना ना मुमकिन है मैं बोरीवली स्टेशन पर रहूँगा और आपका सामान दे दूँगा। ( हमें पता ही नहीं था कि-ट्रेन बोरीवली भी रूकती है ) मैंने उस T.C की बात रजत से कराई तब वो हमें छोड़ी फिर हमने उसी से बांद्रा टर्मिनस की ओर निकलने का रास्ता पूछा (क्योंकि हम तो रजत के भरोसे थे हमें पता  ही नहीं था रास्तों का)भागते दौड़ते स्टेशन से बाहर निकले तो पता चला कि-बांद्रा टर्मिनस स्टेशन यहाँ से दूर है। एक टैक्सी वाले से पूछा तो उसने कहा-"100 रुपया लूँगा..मैडम जल्दी सोच लो राजधानी निकलने में बस दो मिनट बाकी है....गारंटी है कि ट्रेन पकड़वा दूँगा।" अब मरता क्या नहीं करता एक सकेंड भी गवाए बिना मैं टैक्सी में बैठ गई। जब हम पहुंचे तो दंग रह गए क्योंकि वहाँ तक पैदल मात्र 5 मिनट का रास्ता था। खैर,टैक्सी ड्राईवर ने अपना वादा निभाया बिल्कुल ऐसी जगह उतारा जहाँ से चंद सीढियाँ उतरते ही ट्रेन सामने थी। ड्राईवर को पैसा पकड़ते हुए हम भागे ट्रेन धीमी रफ्तार से चल पड़ी थी लेकिन दरवाजे पर खड़े एक आदमी ने हमारी मदद की। हाथ बढ़ाकर सामान भी पकड़ा और हमें भी चढ़ने में सहायता की। हाँफते हुए हम अपनी कम्पार्टमेंट की ओर भागे क्योंकि करीब 10 बॉगी के बाद हमारा बॉगी था और ट्रेन आधे घंटे में बोरीवली पहुँच जाती और रजत तो हमें हमारी ही बॉगी में ढूँढ पाता। बोरीवली में रजत हमें मिल गया उसने हमें हमारा सामान दे दिया,उसी ने हमें एक ठंडे पानी की बोतल भी दी। हम माँ-बेटी चैन की साँस लिए...इस भाग-दौड़ में हमारा गला सुखकर काँटा हो चूका था...हमने सर्दी-जुकाम की परवाह किये बगैर फटाफट  बोतल खोला  और अपने गले में उढ़ेल लिया.....फिर अपनी-अपनी सीट पर पसर गए....होश ही नहीं आ रहा था....सबकुछ सपने सा था....ऐसा लग रहा था अभी आँख खुलेंगी और हम खुद को अपने घर में सुरक्षित पाएंगे। आधी घंटे कोई किसी से बात नहीं किया। इस बीच दिल्ली से घर वालों का कॉल पर कॉल आये जा रहा था। खुद को थोड़ा रिलैक्स करने बाद सबको फोन किया मगर बताये कुछ नहीं,घर पहुँचकर ही सबको सारी बात बताई। 

    अब ये तो हमारा किस्सा था रजत की कहानी तो अभी बाकी थी उसके साथ किया हुआ था ये बताएं बिना तो ये सफरनामा ख़त्म ही नहीं हो सकता। रजत ने कहा तो था कि 10 मिनट में ट्रेन आएगी मगर ट्रेन 45 मिनट बाद आई। ट्रेन के देर-देर से आने के कारण भीड़ बढ़ता  रहा था। बड़ी मुश्किल से रजत सामान वाले कम्पार्टमेंट में चढ़ पाए था। वो भी बड़ी विकट अवस्था में,उसके एक हाथ में ब्रीफकेस था और दूसरे हाथ से वो दरवाजे का रॉड पकड़कर लटका हुआ था यानि ब्रीफकेस हवा में झूल रहा था वो खुद भी पूरी तरह बाहर की ओर लटका हुआ था।  किसी ने   सामान तक को पकड़ने में उसकी मदद नहीं की थी। ये बात रजत ने दो दिन बाद फोन पर बताया था। उसने आगे जो बताया वो इतना डरावना था कि मैं आज  भी उस दृश्य  के कल्पना  मात्र से घबड़ाने लगती हूँ,उस बच्चें ने तो सहा था। वसई रोड से बांद्रा करीब एक-सवा घंटे का रास्ता है उतना दूर वो एक भरी ब्रीफकेस को पकडे हुए लटकता रहा था जब बिजली का खम्बा आता था तो उसे खुद को बचाने के लिए सिकोड़ना भी पड़ता था। ट्रेन लेट-लेट से आने के कारण चढ़ने वालों की ही संख्या थी उतरने वालो की नहीं,जब ट्रेन किसी स्टेशन पर रूकती तो एक मिनट के लिए उसके हाथों को आराम मिलता और फिर वही हालत। (इस वजह से महीनो तक उसके दोनों हाथ की कोहनियों में दर्द रहा) ये सब सुनकर मैंने उसे बहुत डाँटा-"मुर्ख लड़के सामान नहीं आता तो कोई प्रलय नहीं आ जाता अगर तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं ताउम्र जीते जी मरे के समान रहती" मेरी डांट सुनकर वो बोला-हाँ,आंटी मुझ से गलती हो गयी थी,मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसका फ़ोन भी किसी कारणवश स्वीचऑफ हो गया था तो वो बड़ी मिन्नत कर किसी से फ़ोन लेकर मुझे कॉल किया था। आज भी मैं जब इस घटना को याद करती हूँ तो खुद से ज्यादा रजत के लिए डर जाती हूँ....भगवान को लाख-लाख धन्यवाद करती हूँ कि-"आपने मेरे बच्चें की जान बचा ली उस दिन"  वरना एक माँ को क्या जबाब देती मैं और खुद को भी....हम माँ-बेटी के सफर में कोई जोखिम नहीं था मगर रजत का सफर जोखिमों से भरा था जो कि उसे नहीं करना चाहिए था,सामान छूट भी जाता तो कोई बड़ा मसला नहीं था।आज की युवा पीढ़ी उतावलेपन में कुछ करने से पहले सोचती ही नहीं है। लेकिन उस दिन के बाद रजत ने कसम खाई कि-"ऐसा जोखिम कभी नहीं उठाऊंगा और बिना सोच-विचार किये कुछ नहीं करूँगा।" साथ ही साथ हम तीनो ने ये कसम खाई कि-"कभी भी ट्रेन या फ्लाईट पकड़ने के लिए लोकल ट्रेन से सफर नहीं करेंगे"

    इन सब के वावजूद अगर आप मुंबई गए और लोकल ट्रेन का मज़ा नहीं लिया तो समझिये आपका मुंबई घूमना पूरा नहीं हुआ। अरे भाई, बदहवास भीड़ को देखकर यदि ट्रेन में चढ़ने की हिम्मत नहीं हुई तो कोई बात नहीं काम से काम स्टेशन पर बैठकर उन भागती-दौडती जिंदगियों को तो देख सकते हैं यकीन मानिये -"आप एक बार जिंदगी को नये सिरे से सोचने को मजबूर हो जायेगे "

गुरुवार, 2 जून 2022

"मुंबई की पहली बारिश"



  कभी-कभी ऐसा भी होता है कि चंद मिनटों का सफर..कई घंटो का हो जाता है,इतना ही नहीं सरल सा रास्ता भी मुश्किलों से भरा हो जाता है,ऐसा ही एक सफर तय किया था मैंने आज ही के दिन "2 जून" को। 

    बात उन दिनों की है जब आज से चार साल पहले मैं पहली बार मुंबई आयी थी। मुझे आए हुए अभी एक महीना भी नहीं हुआ था। मायानगरी की अदाओं से मैं अभी बिल्कुल अनजान थी, इसके मिजाज के बारे में थोड़ा बहुत सुना पढ़ा तो था मगर अनुभव के नाम पर सब जीरो था। ना रास्तों का ढंग से पता था ना ही बाजार-हाट का, ना ही किसी व्यक्ति विशेष से परिचय था। पहचान के नाम पर हमारी एक बुजुर्ग हाउस ऑनर थी जो मराठी थी ना उनकी कोई बात मेरी समझ में आई ना ही मेरी कोई बात उनके पल्ले पड़ती बस, दुआ सलाम तक ही बातें होती थी।

    एक सप्ताह तो घर की सारी व्यवस्था में ही लग गया। हम माँ-बेटी ही थे कोई सहयोगी भी नहीं था तो हमें बहुत सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा जो कि अक्सर नए शहर में जाने पर होता ही है, इसके लिए हम माँ-बेटी मानसिक रूप से पहले से ही तैयार थे। 15 दिन में हम एडजेस्ट कर गए थे। फिर बेटी काम की तलाश में ऑडिशन देने जाने लगी,साथ में मुझे भी जाना होता क्योंकि नया शहर होने के कारण थोड़ा मैं भी ड़रती थी थोड़ी वो भी झिझकती थी। लेकिन उसके साथ मेरे जाने का  सिलसिला भी जल्दी ही ख़त्म हो गया बहुत जल्द बेटी अकेले आने-जाने लगी। अब समस्या मेरी हो गई क्या करूँ मैं...पुरे दिन घर में अकेली। तो ढूंढ़ते-ढूंढते एक पार्क मिल गया और मुझे इस पार्क का सहारा। मेरा ये ब्लॉग का सफर भी इसी पार्क से शुरू हुआ था। घंटे दो घंटे बैठती थी जो विचार उमड़ते उन्हें मोबाइल में नोट कर लेती, थोड़ा दिल भी बहल जाता और खुली हवा में सांस लेने को भी मिल जाता वरना, मुम्बई के माचिस के डिब्बियों जैसे घर में दम घुटने लगता था।

  रोज तो नहीं मगर जब भी मेरा दिल नहीं लगता, मन उदास हो जाता तो मैं इसी पार्क में आकर बैठ जाती थी । ऐसा ही एक दिन था "2 जुन मेरी शादी की सालगिरह का दिन"। पहली बार आज के दिन घर-परिवार से भी दूर थी और पतिदेव से भी। बेटी का भी उसी दिन एक जरूरी वर्कशॉप का क्लास था उसका जाना जरूरी था वो सुबह 8 बजे ही निकल गई।पुरे दिन की तनहाई और घर का खालीपन मेरे लिए असहनीय हो रहा था। गर्मी बहुत थी तो दिन तो जैसे-तैसे गुजार लिया शाम होते ही मैं पार्क के लिए निकल पड़ी जो घर से महज़ आधे किलोमीटर की दुरी पर ही था। बेटी घर से जाने के बाद बस एक बार दोपहर में कॉल की थी तो बोली कि बस एक घंटे में घर आ जाऊँगी। उसके बाद उसने कोई कॉल नहीं किया मैं जब भी फोन करूँ तो फोन स्विच ऑफ मिलता रहा।  पहली बार वो मुम्बई में घर से इतनी देर बाहर थी।नया शहर और माहौल के कारण दिल में बुरे-बुरे ही ख्याल आ रहें थे।उसका एक दोस्त भी साथ में था उसका फोन भी स्विच ऑफ ही जा रहा था। दोस्त भी कोई बहुत दिनों का परिचित नहीं था सो मन कभी-कभी अनजान शंकाओं से भर जा रहा था। क्या करें "हम बेटियों की मायें कभी अच्छा सोच ही नहीं पाती, हर वक़्त दिल में एक डर जो घेरे रहता है"। 

   खैर, मैं पार्क में बैठी खुद को बहलाने की कोशिश में लगी थी। ऐसे वक्त में अक्सर ऐसा भी होता है कि आप जिसे भी फोन करो वो फोन नहीं उठाता।कभी-कभी ऐसी भी परिस्थिति बनती है जब आप किसी को बात करने के लिए ढुंढते है और आप को कोई भी नहीं मिलता। मेरे साथ भी उस दिन कुछ  ऐसा ही हो रहा था।शाम के  7.30 बज गए, हल्का अँधेरा छा रहा था तभी अचानक से बादल उमड़-घुमड़ के आ गए और तेज हवा चलने लगी। मैं तेज क़दमों से घर के लिए निकल पड़ी सोचा मैं तो घर पहुँचू....क्या पता बेटी घर पहुँच गई हो...उसके फोन की बैटरी ख़त्म हो गई हो...यही सब सोचते-सोचते मैं घर की ओर बढ़ रही थी कि यकायक तेज बौछारों के साथ बारिश शुरू हो गई। अचानक से इतनी तेज बारिश की मैंने कल्पना भी नहीं की थी। फिल्मों में देखती थी कि हीरो-हीरोइन घूम रहें है और अचानक बिजली कड़कने लगी तेज बारिश शुरू हो गई...ऐसा देख हम सब खूब हँसते थे कि-मुम्बईया फिल्मों में हीरो-हीरोइन के मिलते ही अचानक से बारिश कैसे आ जाती है? लेकिन आज ये मेरे साथ सच में हो रहा था, ये अलग बात थी कि-मेरे साथ मेरा हीरो नहीं था।

  खैर,तेज बारिश में भीग तो गई थी मगर तेज हवाओं के साथ गिरती बौछारों से ऐसा लग रहा था कि वो मुझे उड़ा कर ही ले जाएगी तो, खुद को बचाने के लिए मैंने एक छोटे से चर्च के सेड में छुप जाना बेहतर समझा सोची, बारिश थोड़ी देर में तो रुक ही जाएगी फिर चली जाऊँगी। (मुंबई में जगह-जगह छोटे-छोटे ओपन चर्च मिल जाते हैं)लेकिन बारिश थी की रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। मेरा दिल बहुत घबराने लगा ऊपर से बेटी की चिंता और ज्यादा सता रही थी समझ ही नहीं आ रहा था कि किसको फोन करूँ किससे सहायता मांगू। बस,भगवान से गुहार लगा रही थी कि मेरी बेटी जहाँ हो सुरक्षित हो। घर पर भी किसी को फोन नहीं कर सकती थी वो दिल्ली में बैठे क्या करते अलबत्ता घबरा और जाते,सो अपनी पीड़ा अकेले ही सह रही थी। बारिश की बौछार इतनी जबरदस्त थी कि एक घंटे के अंदर पूरा सड़क तालाब बन गया। उन दिनों हम "वर्सोवा गांव"(अंधेरी) के इलाके में रहते थे। उस बस्ती में गंदगी बहुत थी तो बारिश के पानी में कीड़े-मकोड़े तैरने लगे। मैं जहाँ खड़ी थी वहाँ भी जब मेरा पैर एक फीट पानी में डूब गया तो मैंने सोचा अब यहाँ रुकने से बेहतर है मैं इसी पानी में गिरते-पड़ते ही सही घर पहुँचु। अभी सोच ही रही थी कि -फोन की घंटी बजी देखा तो पतिदेव का फोन था फोन उठाते ही उन्होंने कहा  "Happy anniversary" मैं इधर से रुआंसी होकर बोली - "Happy anniversary" बहुत मुश्किल से मैं अपना रोना रोक पा रही थी लेकिन, उन्हें समझ आ गया वो बोले क्यूँ रो रही हो...अगले साल फिर एक साथ होंगे...बहुत तेज़ आवाज़ आ रही है कहाँ हो तुम। (अब उन्हें कौन बताए कि-मेरे रोने की वजह वो नहीं है जो वो सोच रहें हैं ) मैंने झूठ बोला कि-बहुत तेज़ बारिश हो रही है मैं बालकनी में हूँ न इसीलिए आवाज़ आ रही है,कैसे बताती कि मैं फंसी हूँ मुसीबत में। अभी पतिदेव से बात कर ही रही थी कि बेटी का फोन आया मैंने झट फ़ोन ये कहते हुए डिस्कनेक्ट किया कि-बाबू का फोन आ रहा है...बाद में बात करती हूँ। दूसरी तरफ से बेटी की आवाज सुनकर मेरी जान में जान आयी। उसने कहा-मम्मा मैं बिलकुल ठीक हूँ... घबराना नहीं मैं बारिश में फंसी हूँ...कोई ऑटो भी नहीं मिल रहा है....घर आकर सारी बात बताऊँगी...तुम परेशान नहीं होना...तुम कहाँ हो .....?? मैंने उसे भी वही  जबाब दिया जो पतिदेव को दिया था। अगर बता देती तो अब बेटी मेरे लिए घबरा जाती। 

  खैर,जैसे-तैसे,गिरते-पड़ते मैं घर पहुँची। उस पानी भरे नालीनुमा सड़क पर मरे हुए चूहों से लेकर,मछलियाँ, कीड़े-मकोड़े सब तैर रहे थे मैंने किसी पर ध्यान नहीं दिया...लक्ष्य एक ही था बस,कैसे भी घर पहुँच जाऊँ। ऐसा नहीं था कि-उस सड़क पर मैं ही अकेली चल रही थी मेरे साथ बहुत से लोग चल रहें थे मगर,वो मुंबई के इस हालात के आदी थे उन्हें कोई खास फर्क ही नहीं पड़ रहा था और मेरे लिए तो वो "बैतरणी" थी जिसे पार करना  एक चुनौती। 7.30 की पार्क से निकली 10.00 pm में घर पहुँची। ताला खोल ही रही हूँ कि पीछे से बेटी और उसका दोस्त दोनों आ गए,मेरी ऐसी हालत देख वो अचम्भित हो पूछी -ये क्या हाल हो गया है..कहाँ थी तुम ? मैंने कहा-"अभी कुछ ना पूछो...सैकड़ो कीड़े मेरे जिस्म पर चल रहे हैं...पहले उन्हें हटा लेने दो"। ताला खोलते ही मैं सीधी बाथरूम में भागी। बेटी भी पूरी तरह भीगी हुई थी मेरे बाद वो भी पहले नहाने ही गई। नहाने के बाद मैंने कॉफी बनाई क्योंकि बारिश में उतना भीगने के बाद कंपकपी सी हो रही थी। तब तक उसका दोस्त भी नहाकर आ गया हम तीनों कॉफी पीते-पीते अपनी अपनी आपबीती सुनाने लगे।

   बेटी ने बताया कि-क्लास तो तीन बजे तक ही था लेकिन जैसे ही क्लास खत्म हुआ थियेटर जगत के एक बड़े एक्टर आ गए, ऑर्गनाइजर ने कहा कि-आप यदि इनका वर्कशॉप अटेण्ड करना चाहे तो कर सकते हैं। कोई चार्ज तो था नहीं सो हम बहुत ज्यादा ही खुश हो गए और क्लास  में चले गए उन लोगो ने हमारा फोन स्विच ऑफ करवाकर पर्स बाहर ही जमा करवा दिया, अत्यधिक उत्साह में हम दोनों आपको बताना ही भूल गए और एक बार अंदर चले गए तो बाहर नहीं आ सकते थे। बेटी का दोस्त जिसका नाम अंकित था उसने मुझे संतावना देते हुए कहा-"आंटी क्यूँ घबरा जाती हो....दामिनी मेरी बहन जैसी है...मैं जब इसके साथ रहूँ तो आप बेफिक्र रहो करो....आपकी बेटी को कही अकेला नहीं छोड़ूँगा"। उसकी  ये बातें सुन मैंने उसे गले लगा लिया आज भी वो मेरी बेटी का भाई ही है,अब तो वो मुंबई में नहीं रहता मगर रिश्ता नहीं तोडा है। मैं सोचती हूँ कि-आज के खराब माहौल में हम अच्छे लोगों पर भी शक करने लगते हैं,लेकिन जब तक किसी के साथ वक़्त नहीं बिताओं कैसे पता चलेगा कि-कौन अच्छा,कौन बुरा। 

   खैर,उसे जब पता चला कि आज मेरी शादी की सालगिरह है तो उसने भी मुझे विश किया। घर में ज्यादा कुछ तो था नहीं तो बस,पूरी और आलू की सब्जी बनाई और तीनो साथ बैठकर खाना खाये। ये सब करते-करते रात के एक बज गए थे। पतिदेव से दुबारा बात भी नहीं हुई। बस,ऐसे ही मनाया मैंने "मुंबई की पहली बारिश में अपनी शादी की सालगिरह"। रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे मैं सोच रही थी कि-माँ ठीक ही कहा करती थी "सफर छोटा हो या बड़ा उसका रास्ता अनिश्चित ही होता है"। आज शाम 6 बजे जब मैं घर से निकली थी तो आसमान बिल्कुल साफ़ था मैंने कल्पना भी नहीं किया था कि-मेरा ये छोटा सा टहलने जाने वाला सफर भी इतना "Adventures" हो जायेगा। 

सच,"ना जिंदगी का पता है ना सफर का" सब कुछ अनिश्चित। 

बुधवार, 2 जून 2021

"सच्चे हमसफ़र..... "

   


    बात उन दिनों की है जब मेरी शादी को बस दो साल हुआ था ,मेरी गोद में 9-10 महीने की बेटी थी जिसकी तबियत बहुत ज्यादा खराब थी और उसे ही डॉक्टर से दिखाने के लिए हम बीरगंज (नेपाल, जहाँ मैं व्याह कर गई थी ) से मोतिहारी  (पश्चिमी चम्पारण,बिहार  जहाँ मेरे माँ-पापा रहते थे ) जा रहें थे। नेपाल बॉर्डर पार कर रक्सौल पूर्वी चम्पारण से हमें ट्रेन पकड़ना होता था। जब हम रक्सौल पहुंचे तो देर हो गई थी और ट्रेन खुलने ही वाली थी (बॉर्डर पार अक्सर जाम होता था,कभी-कभी कई-कई घंटे लग जाते थे,उस दिन भी कुछ ज्यादा ही जाम था ) हम भागते-भागते ट्रेन में चढ़ गए मगर टिकट नहीं लिए थे ,तभी किसी कारण से ट्रेन थोड़ी देर रुक गई ,मेरे पतिदेव ने मेरी एक ना सुनी और वो टिकट लेने के लिए  ट्रेन  से उतर गए। टिकट काउण्टर पर भी लम्बी लाईन लगी थी। पतिदेव के जाने के दो मिनट बाद ही ट्रेन चल पड़ी। खिड़की से झाँकते हुए मेरी नज़र बेसब्र हो उन्हें ढूँढने लगी लेकिन दूर-दूर तक वो दिखाई नहीं दे रहें थे। ट्रेन  खुलते के साथ ही मेरी बेटी जोर-जोर से पापा-पापा  चिल्लाते  हुए रोने लगी ,वो  खिड़की से दोनों हाथ बाहर कर तड़प-तड़प कर रो रही थी। मैं उसे संभालने लगी तभी प्लेटफॉर्म पर शोर हुआ "अरे ,कोई आदमी ट्रेन से गिर गया "शोर सुनते ही सब खिड़की-दरवाजे से बाहर लटकते हुए झाँकने लगे,मैं अपनी सीट पर बैठी, बेटी को कसकर पकडे हुए ये प्रार्थना करने लगी "प्रभु वो आदमी जो भी हो उसकी रक्षा करना, उसे अपने परिवार वालों तक सही सलामत पहुँचा देना " प्रार्थना करते-करते मेरी आँखों से आँसू बहने लगे,मेरी बेटी जब पांच छह महीने की थी तभी से वो मेरी आँखों में आँसू नहीं देख पाती थी मेरी आँखों में आँसू देखते ही वो रोना भूलकर मेरे आँसू पोछने लगती थी (अब इतनी छोटी बच्ची ऐसा क्यूँ करती थी वो तो परमात्मा ही जाने ) उस दिन भी वही हुआ वो रोना भूल मेरे आँसू पोछने लगी। गाडी रफ्तार पकड़ चुकी थी ,एक उम्मींद थी कि पतिदेव शायद किसी और कम्पार्टमेंट में चढ़ गए होंगे परन्तु इस बात की पुष्टि तो अब अगले स्टेशन पर ही होगी। 

    सच ही कहते हैं "अकेली औरत खुली तिजोरी की तरह होती है " उसे देखते ही चारो तरफ से लुटेरे आ धमकते हैं, मेरे साथ भी वही हुआ। मेरे बहुत से शुभचिंतक मेरे इर्द-गिर्द खड़े हो गए "कहाँ जाना है मैडम....पतिदेव छूट गए क्या......हमें बताइए हम आपको छोड़ देंगे.....आप बिलकुल ना घबराइए मैं हूँ न " ऐसे-ऐसे जुमले चारों तरफ से मेरे कानों में पड़ने लगे। कोई मेरी बेटी को पुचकार रहा है तो  कोई टॉफी दे रहा है। मेरी बेटी हर एक का हाथ झटक दे रही थी। बेटी की इस हरकत को देखते ही मेरे अंदर का डर (जो सिर्फ इस वजह से था कि -कही इनके साथ कुछ बुरा न हुआ हो,अन्यथा डरना तो मैंने सीखा ही नहीं, ना तब ना अब ) गायब हो गया, मैं खुद को संभालते हुए बोली -" आप लोगो चिंता ना करे......मैं अकेली ही जाने वाली थी.....पतिदेव तो सिर्फ बैठाने आये थे... हाँ,टिकट उनके पास रह गया है....मगर मेरे पास पैसे है....आप लोगो को परेशान होने की जरूरत नहीं है।" मेरे सब कुछ कहने के वावजूद.....कुछ कुत्ते ढीढ होते है न....मांस का टुकड़ा आसानी से अपने हाथो से जाने नहीं देना चाहते... वो बातचीत करने का सिलसिला जारी रखे थे, पर मैं भी ऐसे कुत्तों से डरने वाली तो थी नहीं, मैं भी आराम से उनके सवालों का जबाब दे रही थी। कहाँ तक जाना है मैडम ....ज्यादा दूर नहीं बस मोतिहारी जाना है। अच्छा, मैं भी मोतिहारी ही उतरुँगा....कोई दिक्क्त नहीं आप मेरे साथ हो लेना ---हाँ-हाँ जरूर,आप तो भले आदमी लग रहें है। दूसरी आवाज आई---अरे मैडम,मोतिहारी में किसके घर जाना है.....मैं सबको जनता हूँ---इस सवाल पर मैंने थोड़ी समझदारी दिखाई और अपने पापा का नाम ना लेकर बोली- अरे भाईसाहब, मुझे छेदी प्रसाद के घर जाना है.... मैं उनकी भतीजी हूँ.....आप तो मेरे चाचा को अच्छे से जानते होंगे न....मोतिहारी में ऐसा कोई नहीं जो उन्हें ना जाने....आप मुझे घर पहुंचा दीजियेगा.....चाचा बहुत खुश होंगे आपसे शायद, ईनाम भी देदे आपको। छेदी प्रसाद का नाम सुनते ही सबके तोते उड़ गए,कोई दबी हुई आवाज में तो कोई मुस्कुरा कर बोलने लगा -अच्छा तो आप छेदी प्रसाद की भतीजी है,एक जनाब तो गले को साफ करते हुए निकल लिये। एक-एक करके सब गदहे की सींग की तरह गायब होने लगे। छेदी प्रसाद हमारे पडोसी थे जो मोतिहारी में " दबंग " के नाम से जाने जाते थे। हमारे घर से उनका बहुत ही अच्छा रिश्ता था और अब भी है। मेरे माँ-पापा थे ही ऐसे जो खुद तो बड़े सीधे थे मगर बनती उनकी सबसे थी,सब पापा की बहुत इज्जत करते थे।

     अगले स्टेशन पर भी पतिदेव नहीं आये मुझे समझ आ गया कि -ये सफर मुझे अकेले ही तय करना है। ख़ैर, छेदी प्रसाद का नाम सुनते ही चील-कौओं का मड़राना तो बंद हो गया मगर मेरी फ़िक्र और परेशानी कैसे कम होती, मेरी  गोद में एक बच्ची,एक हैंडबैग और एक सूटकेस  ये सब लेकर मैं स्टेशन पर उतरूंगी कैसे,  गाड़ी भी बस दो  मिनट रूकती है। कहते हैं न जहाँ बुरे लोग है वहाँ अच्छो की भी कमी नहीं,स्टेशन आने पर एक भलामानस जो शुरू से ये सब देख रहा था मगर चुप था उसने हाथ बढ़ते हुए कहा " May I help you "मैंने भी स्वीकृति में सर हिला दिया। उसे भी वही उतरना था तो ज्यादा परेशानी  नहीं हुई,मेरे कहने पर वो मेरे सामान को प्लेटफॉर्म की दूसरी ओर रेलवे लाईन पार करते ही जहाँ मेरे पापा का ऑफिस था वहाँ तक पंहुचा दिया। मैंने उसे थैंक्स कहा और वो भी बड़े ही शालीनता के साथ हाथ जोड़कर चला गया। पापा के ऑफिस पहुँचकर मुझे चैन मिला,अब घर पहुँचने की फ़िक्र नहीं बस, इनकी चिंता हो रही थी। जब से सुना था कि -ट्रेन से कोई गिर गया है अंदर तक एक घबड़ाहट झकझोर रहा था,दिल इतनी तेजी से धड़क रहा था जैसे मुँह को आ जायेगा,बस ऊपर-ऊपर से तो सहज बनी रही और हर पल भगवान से प्रार्थना करती रही "वो बिल्कुल ठीक होंगे"। मेरे ट्रेन के तीन  घंटे बाद एक ट्रेन  थी, मुझे यकीन था वो उसी ट्रेन से तीन घंटे बाद मुझ तक जरूर पहुँचेगे। 

    खैर,अभी की परिस्थिति पर पहले फोकस करना था--ये सोच मैं पापा के ऑफिस में गई,अंदर जाने पर पता चला कि -पापा तो ऑफिस आये ही नहीं ,वो तो एक सप्ताह से ऑफिस नहीं आ रहें हैं। इतना सुनते ही मेरे पैरों के नीचे से जमीन निकल गई---ऐसा कैसे हो सकता है---क्या हुआ होगा पापा को---क्यूँ छुट्टी लिए है ? ऐसे कई सवालों ने मुझे घेर लिया। उस दिन ऑफिस में मुझे एक भी पहचान के लोग नहीं मिले जिनके साथ मैं घर तक  जाती और अंजानो का साथ मैं लेना नहीं चाह रही थी। उस शहर की सबसे बड़ी खराबी थी वहां जल्दी रिक्सा नहीं मिलता था,घर तो लगभग एक किलोमीटर से भी कम की दुरी पर था मगर उतना दूर भी सामान और बच्चें को लेकर मैं कैसे चल पाऊँगी। वैसे भी बेटी के होने के बाद से मैं बहुत कमजोर हो गई थी, चलने पर ही साँस फूलती थी,ऊपर से बेटी सीजीरियन हुई थी तो भारी समान लेकर चलना और मुश्किल था, मेरी बेटी का वजन भी तो  10 किलो था, मेरे तो पसीने छूटने लगे। मगर करती क्या,आज के जमाने की तरह मोबाईल तो था नही कि -एक बटन दबाओं और सारी समस्याओं का समाधान हो जाए। मेरे पास विकल्प तो था नही सो "चल अकेला "कहते हुए इस उम्मींद पर चल पड़ी कि -रास्ते में कोई तो पहचान का मिल जाएगा लेकिन,  उस दिन मेरी किस्मत शायद बहुत खराब थी, कोई नहीं मिला। 

     अब उस दिन, मेरी किस्मत बहुत खराब थी या बहुत अच्छी वो तो सफर ख़त्म होने के बाद ही पता चलता। खैर, रुक-रुककर,दम भरते हुए मैं किसी तरह घर पहुँची। सामान नीचे रखकर दरवाजा खटखटाने ही वाली थी कि -देख रही हूँ " दरवाजे पर बड़ा सा ताला लटका " अब तो मेरी क्या दशा हुई होगी ये बताने की जरूरत नहीं। दूसरा कोई रास्ता नही था तो उसी छेदी प्रसाद चाचा के घर का दरवाजा खटखटाया मैंने। चाची ने दरवाजा खोला -मुझे ऐसे हालत में देखते ही वो घबरा गयी,मुझे पकड़कर रोती हुई बोली -"क्या हुआ बेटा,तुम ऐसे हालत में ?"  आप समझ सकते हैं उस ज़माने में बेटियाँ,  बच्चें और सामान के साथ अकेले दरवाजे पर आ खड़ी हो तो क्या गुजरती थी सब पर, असंख्य शंकाये उन्हें घेर लेती थी। मैं रोती उससे पहले चाची ही दहाड़े मारकर रोने लगी। उनका रोना सुन भाभी बाहर आई (छेदी प्रसाद की बहु )वो चाची को मुझसे अलगकर मुझे अंदर लेकर गई....मेरी साँस चढ़ी हुई थी...उन्हेने मुझे पानी पिलाया....बेटी को गोद से लेकर उसे भी बिस्कुट दिया। (जैसा कि -मैंने पहले ही बताया है कि उनके घर से हमारे अच्छे संबध थे,उनकी बेटी नहीं थी तो वो लोगो मुझे संगी बेटी जैसा ही स्नेह देते थे )चाचा भी आ गए आते  सवाल-मेहमान कहाँ है ?

     मुझे जब थोड़ी साँस आई तो मैंने उन्हें सारा वृतांत सुनाया और उन्होंने बताया कि -मेरे नानाजी का देहांत हो गया है और मेरा सारा परिवार वही गया है। उन दिनों घर में फोन तो था नही और नेपाल में भी फोन करने की सुविधा नहीं थी। हाँ,इस  घटना के बाद  मेरे पापा ने घर में फोन लगवा लिया। अब मेरे पतिदेव का क्या हुआ ये जानने के लिए तीन घंटे इंतज़ार करने थे। अब तक तो खुद ही उलझी थी लेकिन अब एक-एक पल सालों के जैसे गुजर रहा था। मैं आज भी शुक्रगुजार हूँ भाभी की जिन्होंने मुझे बड़े प्यार से संभाला। मेरी बेटी  पापा-पापा कहकर सिसकती रही थी,रोने के कारण उसका बुखार और बढ़ता जा रहा था। खैर,8 बजे रात में दूसरी ट्रेन  का टाईम था, 7. 30 में ही भईया (चाचा के बेटे )मेरे पतिदेव को लेने के लिए स्टेशन चले गए। 8. 30 में जब वो वापस आये तो उनके साथ कोई ना था,वो बताए कि -पूरा स्टेशन ढूढ़ लिया मेहमान कही नही मिले,इतना सुनते ही चाची और रोने लगी,चाचा उन्हें समझाने लगे -हो सकता है दूसरी ट्रेन से आये---लेकिन सब जानते थे कि -उसके बाद सुबह तक कोई ट्रेन नही है.मैं अपनी आँसू को छुपाये  बेटी को सभालते हुए खुद को समान्य रखने की कोशिश कर रही थी और मन  ही मन बस प्रार्थना.......... बाहर के बरामदे में सभी  बैठे थे... सब खामोश---तभी छोटा अंकुर चिल्लाता हुआ आया  "फूफाजी आ गए " सब एक साथ दौड़ पड़ें,सबने उन्हें घेर लिया मेरा दिल कर रहा था कि -मैं भी दौड़कर उनसे जाकर लिपट जाऊँ-- मगर उस वक़्त के हमारे संस्कारों ने पैरों में बेड़ियों डाल रखी थी, भाभी मुझे कसकर पकड़कर खड़ी थी और मैं उनके छाती से लगकर फफक कर रो पड़ी,दुःख के आँसू को तो रोक लिया था ख़ुशी के आँसू झलक पड़े। उनकी एक झलक भी नहीं देख  पाई मैं---क्योंकि सब उन्हें घेरे थे। मैं अंदर दरवाजे से लगकर खड़ी थी वो जैसे ही बरामदे में चढ़े मेरी और उनकी निगाहे एक हो गई और दोनों के आँखें  बरस पड़ी । उनके कपडे जगह-जगह से फट्टे थे और गंदगी लगी थी,सर पर पट्टी बंधी थी हाथ-पैरो पर भी गहरे चोट लगे  जख्म दिख रहे थे ,मुझे समझते  देर लगी कि -"ये वही थे जिसके लिए मैंने दुआ की थी "

    हमें रात चाचा के घर ही गुजारनी पड़ी ,रात क्या दो दिन रहना पड़ा जबतक माँ-पापा नहीं आये। वो रात भुलाये नहीं भूलती...बेटी को निमोनिया था वो पूरी रात बुखार में तप रही थी उसे साँस लेने में दिक्क्त होती और पतिदेव को भी अंदुरनी चोट और डर की वजह से बुखार हो गया था। कमरे में आते ही वो मुझे पकड़कर ये कहते हुए फफक-फफक कर रो पड़ें --"आज तो एक पल को लगा जैसे मैं तुमसे हमेशा-हमेशा के लिए बिछड़ गया,मेरा अंत समय स्पष्ट दिख रहा था,यकीनन तुम्हारा  नेक कर्म होगा जिसने मुझे मौत के मुख से निकल लिया। " उसके बाद जो उन्होंने सुनाया उसे यादकर आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उन्होंने बताया कि -मैं ट्रेन पकड़ चुका था ,एक हाथ से मैं ट्रेन का दरवाजा पकडे था और मेरा दूसरा हाथ  एक आदमी ने पकड़ रखा था और अंदर खींचने की कोशिश ही कर रहा था तभी diversion पर (जहां ट्रैन पटरी बदलता है ) बहुत तेज झटका लगा और मेरा हाथ  छूट गया और मैं दूर दूसरी पटरी पर फेका गया, गहरी चोट के कारण मुझे बेहोशी सी आ गई थी,मैं उठ नहीं पा रहा था और उस पटरी पर (जिस पर वो गिरे थे )एक मालगाड़ी आ रहा था लेकिन,तभी किसी ने मुझे किनारे की ओर खींच लिया,वही  आदमी मुझे सहारा देकर स्टेशन पर लाया,मुझे पानी पिलाया मेरे जख्मों को भी धोया और पास के मेडिकल स्टोर ले जाकर मेरी मरहम-पट्टी करवाई,तब मैं तुम तक पहुंच पाया हूँ। इतना कहते-कहते वो मुझसे लिपटकर फिर रो पड़ें। 

   सारी रात वो डर-डरकर मेरा साथ पकड़ लेते और मैं पूरी रात कभी बेटी के सर पर ठंडे पानी की पट्टी रखती कभी इनके सर पर। मुझे होमियोपैथ का जितना ज्ञान था और उस वक़्त मेरे पास जितनी दवाईयां थी उससे रात भर दोनों का इलाज करती रही। परमात्मा ने मेरी सुनी और मेरी अगली सुबह रौशनी से भरपूर थी--दोनों का बुखार उतर चूका था,दोनों पापा-बेटी एक दूसरे को गले लगाया चैन से सो रहे थे। सुबह चाय-नाश्ता के बाद हम डॉक्टर के पास दोनों को लेकर गए,क्योंकि दोनों का चैकअप करवाना जरूरी था। चाची और भाभी ने मेरा इतना ख्याल रखा कि-आज तक मैं उनकी एहसानमन्द हूँ। 

    आज इस घटना को तेईस साल हो गए। उस तीन घंटे में हम दोनों ने यही महसूस किया था कि -शायद अब हम एक दूसरे से कभी नहीं मिल पाएंगे,वो तीन घंटे तीन साल की तरह गुजरा था हम पर। मगर ---आज मैं सोचती  हूँ कि -"उस तीन घंटे में हम दोनों एक दूसरे से दूर जा रहे थे या और करीब आ रहें थे ?"

    अरेंज मैरिज की एक खास बात होती है "यहाँ हम एक दूसरे से बिलकुल अनभिज्ञ होते।एक दूसरे से प्यार होने की बात तो दूर एक दूसरे को ठीक से देखे तक नहीं होते हैं और ऐसे में एक दिन हमें एक डोर में बांध दिया जाता है और आज्ञा दी जाती है कि -तुम्हे साथ रहना भी है और निभाना भी। हमारे समय में ऐसी स्थिति में कोई विकल्प नहीं होता था तो पहले ही दिन से मानसिकता ही यही होती थी " तन-मन समर्पण की " तो आधी समस्या यही सुलझ जाती थी। मगर आधी का क्या ? आधी में होता ये है कि -सिर्फ एक दूसरे से अपेक्षा ही रखी गई और अपना-अपना  कर्तव्य नहीं निभाया गया तो जीवन कलह-क्लेश से भर जाता है और यदि छोटे-छोटे मासूम से ख़ुशी और दुःख के पल को संजोया गया और उन पलों में आपसी मतभेद ना कर सीख ले लिया गया तो वही पल एक दूसरे को करीब और करीब लाते जाते हैं। 

    उस दिन के तीन घंटे ने हमें एक दूसरे का मोल समझा दिया था। हमारे रिश्तें में यही होता था जीवन में आये ऐसे पलों ने हमें बहुत कुछ सिखाया और हम एक दूसरे के करीब और करीब आते चले गए...हमनें कभी एक दूसरे पर दोषारोपण नहीं किया ....सफर में जब भी मैं गिरी तो उन्होंने संभाला....वो गिरे तो मैंने अपनी बाँहों का सहारा दिया और जीवन सफर अनवरंत आगे बढ़ता रहा..."25 सावन " कब गुजर गया पता ही नहीं चला.....बस,बालों की सफेदी वक़्त का एहसास करा रही है । हमारे लिए तन की दुरी ने कभी मायने नहीं रखा....आज भी मैं उनसे बहुत दूर हूँ तकरीबन 1415 किलोमीटर दूर मगर सिर्फ तन से मन हरपल एक दूसरे के पास है और हमेशा पास ही रहेंगे। आज ही के दिन वो मेरे "हमसफ़र" बने थे, अब परमात्मा ने कब तक का साथ लिखा है नहीं जानती मगर जब तक जिन्दा है एक दूसरे के सच्चे हमसफ़र थे और रहेंगे..... 

"मुंबई की लोकल ट्रेन"

       "मुंबई की लोकल ट्रेन" इससे कौन परिचित नहीं है। सर्वे बताती है कि रोजाना  लगभग 75 लाख लोग इस ट्रेन से सफर करते हैं। तो मान ल...