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सोमवार, 10 मई 2021

डेस्टिनेशन "अंतिम लक्ष्य "

 


"डेस्टिनेशन अर्थात  गंतव्य ,आखिरी पड़ाव या अंतिम लक्ष्य" 

     जब भी कोई सफर शुरू हुआ है तो वो कही ना कही जाकर खत्म जरूर होता है। अब  सफर सुखद हो या दुखद उसका अंत होना निश्चित है। आपको अपनी मंजिल मिली या नहीं आप सही गंतव्य पर पहुंचे या नहीं, ये निर्भर करता है आप की सफर के शुरुआत पर। आप जब ट्रेन सही पकड़ेंगे तो वो निश्चित रूप से आपको आपके सही गंतव्य पर छोड़ेगी ही।ज़िंदगी भी तो एक सफर ही है.... 

एक गीत के बोल है -

"ज़िंदगी का सफर है ये कैसा सफर

कोई समझा नहीं,कोई जाना नहीं ,

है ये ऐसी डगर,चलते हैं सब मगर 

कोई समझा नहीं,कोई जाना नहीं "

क्या सचमुच हम नहीं जानते,नहीं समझते या समझना ही नहीं चाहते ?

ज़िंदगी का सफर हो या ट्रेन का, एक ही नियम में चलती है। सोच-समझकर...अपने "अंतिम लक्ष्य" का  सही निर्णय कर....रास्ते की पूर्ण जानकारी लेकर....साथ में चल रहे सहयात्रियों के साथ ताल-मेल बिठाकर....सफर में आने वाले विघ्न-बाधाओं के लिए भी खुद को पहले से तैयार कर....जब सफर की शुरुआत करते हैं तो सुखद मंज़िल मिलनी        तय है। कभी-कभी सफर में अनहोनियाँ भी हो जाती है जिसका अंदाज़ा भी आप नहीं लगा सकते हैं                   उस परिस्थिति में भी खुद को सयंमित रखना भी नितांत आवश्यक होता है। 

ट्रेन के सफर के आखिरी पड़ाव को हम जानते हैं,उसके मुताबिक सहजता से पूर्व तैयारी कर रखी होती है हमने, अधिकांश लोग होनी-अनहोनी के लिए भी खुद को तैयार रखते हैं मगर ज़िंदगी का सफ़र.....जिसका आखिरी पड़ाव  "मौत" है उसके विषय में जानते सब है,समझते भी सब है परन्तु कभी भी पूर्व तैयारी करके नहीं रखते। 

क्यों ? क्योंकि "समय अवधि" का पता नहीं होता। हमें लगता है अरे ! अभी स्टेशन आने में काफी देर है और मरने की क्या तैयारी करना ? जब मौत आएगी तो चल पड़ेंगे उसके संग....कौन सा उसके लिए बोरियां-बिस्तर बांधना है ?

मगर दोस्तों,असली सफर तो यही है,इसकी तो तैयारी ज्यादा करनी होती है। क्योंकि ये सफर तो जन्म लेने के साथ ही शुरू हो जाता है और जैसे-जैसे सफर आगे बढ़ता है हमारी  मंज़िल तो पहले से तय होती है मगर....सफर सुखद होगा या दुखद ये हमारे खुद के जीवन शैली पर,सहयात्रियों के साथ हमारे व्यवहार पर,सफर के दौरान आई बिघ्न-बाधा के वक़्त  लिये गए सही-गलत निर्णय पर निर्भर करता है। ट्रेन-बस या किसी भी बाहन की यात्रा के दौरान यदि दुर्घटना होती है तो हम कहते हैं कि -यात्रा की  लगाम तो किसी और के हाथों में होता है उस पर हमारा नियंत्रण नहीं होता न ,मगर जीवन-यात्रा की पूरी लगाम तो हमारे हाथों में होती है। आज का हमारा कर्मा या कार्य कह लें वही हमारा कल निश्चित रूप से तय करता है। फिर भी सबसे ज्यादा कोताही या लापरवाही या गैर-जिम्मेदाराना हरकत हम इसी यात्रा में करते हैं। 

यात्रा कोई भी हो हमारा काम खुद संभल कर चलना नहीं होता हमारा काम होता है अपने सर आयी परेशानी का ठीकरा किसी और के सर फोड़ना। वाहन में दुर्घटना हुई तो ड्राईवर खराब था जीवन में दुर्घटना हुई तो सरकार गलत है या उससे भी बेहतर विकल्प भगवान का किया धरा है "हम क्या कर सकते हैं हम तो इनकी हाथो की कठपुतली है।" क्या  हम सचमुच  किसी के हाथों की कठपुतली है ? हम किसी के हाथों की कठपुतली नहीं है....       ना ही हो सकते हैं....हमें कोई नहीं नचा सकता.... हमारा नाचना हम स्वयं तय करते हैं। 

किसी शायर ने कहा है -

"मौत आनी है आएगी एक दिन,जान जानी है जायेगी एक दिन 

ऐसी बातों से क्या घबड़ाना,यहाँ कल क्या हो किसने जाना "

अच्छी लगती है ये पंक्तियाँ और 21 वी सदी के लोगो ने इसे अपना भी लिया। कल क्या होना है इस पर अपना जोर तो है नहीं तो आज जी लो जी भर के,मौज-मस्ती करो कल की फ़िक्र छोड़ो। 

जी लो यार, किसने रोका है मौत आएगी तो चल देना साथ मगर कम से कम ये तो तय कर लो कि - कुत्तों की मौत मरोगे या इंसानों की ?

अब यहाँ फिर ये सवाल -क्या फर्क पड़ता है मौत तो मौत है इसमें क्या च्वॉइस करना,कोई कपड़ा या खाना तो नहीं जिसके पसंद से मज़े में फर्क पड़ जाएगा ?

फ़र्क पड़ता है दोस्त ,यदि नहीं पड़ता तो आज हम अपने अपनों को चंद साँसों के लिए तड़प-तड़पकर मरते देख खुद भी ना तड़प रहे होते,उनकी अर्थियों को कन्धा ना दे पाने का मलाल नहीं होता, उनके शरीर को गैरो के हाथों या मशीन में जलते देखना इतना दुस्कर ना होता। एक बार फिर से ये सोच, क्या फर्क पड़ता है- मौत आयी मरने वाला मर गया.....अब मरने के बाद लाश को हॉस्पिटल वाले जलाये या म्युनिसिपल्टी वाले या कोई फर्क नहीं....है न ?

क्या सचमुच फ़र्क नहीं पड़ता है ?

हिन्दू मान्यता में "आत्मा" जैसी किसी चीज का जिक्र होता है। कहते हैं शरीर मरता है आत्मा अमर होती है।वैसे बहुत से हिन्दू विरोधी तत्व इसे अपने तर्क-वितर्क से सिरे से ख़ारिज करते हैं और कहते हैं  कि-ये ढकोसला है (कुछ लोग तो हिन्दू धर्म और संस्कार को राजनिक रूप भी दे देते है ) मगर हमने देखा है वही लोग सबसे ज्यादा ढकोसला बाजी करते हैं। खैर,वैसे मॉडन साइंस ने भी अब ये कहते हुए इसके आस्तित्व को स्वीकार लिया है कि -कुछ ज्योतिपुंज जैसी चीज तो होती है जिसके निकलते ही शरीर मर जाता है।आत्माओं के भटकने या बिना शरीर के उसके होने की बात भी अब वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुकी है।  

क्या सचमुच आत्मा होती है  ?

   होती तो है,ये शब्द बे-माने तो नहीं। गाहे-बगाहे हमने ये कहते सुना ही होगा और बोलते भी होंगे "मेरी अंतरात्मा पर बोझ है,मेरी अंतरात्मा तड़प रही है"क्यों कहते हैं हम ऐसा ? यकीनन आत्मा का मतलब "मन" है और सफर शरीर नहीं करता आत्मा करती है। तभी तो मन के थकने से शरीर थकता है मन के हारने से शरीर हारता है। शरीर तो बस आत्मरूपी मन का पोषक है और आत्मा का सफर अनंतकाल से चल रहा है और अनंतकाल तक चलेगा। अंतिम पड़ाव कहा होगा पता नहीं। लेकिन एक सफर से दूसरे सफर तक हम जिस पोषक में यात्रा करते हैं और  जिस गंतत्व तक हमें पहुंचना होता है  फ़िलहाल वही हमारा "आखिरी लक्ष्य" होता है।मगर इस  "आखिरी लक्ष्य" के बारे में हमने कभी सोचा  ही नहीं जो सबसे जरूरी था। 

ये जीवन सफर इतना मुश्किल पहले कभी नहीं था जितना आज हमने बना दिया है,सचमुच नहीं पता अगले पल क्या होने वाला है। क्योंकि यात्रा के दौरान हम राहों में जो गंदगी फैलाते आये है,सहयात्रियों से मुख मोड़ते आये हैं ,नियम-कानून तोड़ते आये हैं  ,सीधे शब्दों में जो अपने संस्कार छोड़ते आये हैं  उसका खामियाज़ा तो भुगतना ही पड़ेगा और भुगत ही रहें है तभी तो  श्मसान घाट तक भी अकेले जा रहे हैं  और आज की मौत तो हमें खुद की लाश को भी खुद के कंधे पर ढोने पर भी मजबूर कर रखा है। फिर वही बात -

"जब जागो तभी सवेरा"

 अब भी हम यदि सोते-सोते ही सफर काटेंगे तो "डेस्टिनेशन" पर तो पहुंच ही जायेगे क्योंकि वहाँ पहुंचना तय है मगर आत्मा पर इतना दर्द और बोझ लेकर जायेगे कि -हमारा अगला सफर इससे भी डरावना होगा। 

"मुंबई की लोकल ट्रेन"

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