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बुधवार, 2 जून 2021

"सच्चे हमसफ़र..... "

   


    बात उन दिनों की है जब मेरी शादी को बस दो साल हुआ था ,मेरी गोद में 9-10 महीने की बेटी थी जिसकी तबियत बहुत ज्यादा खराब थी और उसे ही डॉक्टर से दिखाने के लिए हम बीरगंज (नेपाल, जहाँ मैं व्याह कर गई थी ) से मोतिहारी  (पश्चिमी चम्पारण,बिहार  जहाँ मेरे माँ-पापा रहते थे ) जा रहें थे। नेपाल बॉर्डर पार कर रक्सौल पूर्वी चम्पारण से हमें ट्रेन पकड़ना होता था। जब हम रक्सौल पहुंचे तो देर हो गई थी और ट्रेन खुलने ही वाली थी (बॉर्डर पार अक्सर जाम होता था,कभी-कभी कई-कई घंटे लग जाते थे,उस दिन भी कुछ ज्यादा ही जाम था ) हम भागते-भागते ट्रेन में चढ़ गए मगर टिकट नहीं लिए थे ,तभी किसी कारण से ट्रेन थोड़ी देर रुक गई ,मेरे पतिदेव ने मेरी एक ना सुनी और वो टिकट लेने के लिए  ट्रेन  से उतर गए। टिकट काउण्टर पर भी लम्बी लाईन लगी थी। पतिदेव के जाने के दो मिनट बाद ही ट्रेन चल पड़ी। खिड़की से झाँकते हुए मेरी नज़र बेसब्र हो उन्हें ढूँढने लगी लेकिन दूर-दूर तक वो दिखाई नहीं दे रहें थे। ट्रेन  खुलते के साथ ही मेरी बेटी जोर-जोर से पापा-पापा  चिल्लाते  हुए रोने लगी ,वो  खिड़की से दोनों हाथ बाहर कर तड़प-तड़प कर रो रही थी। मैं उसे संभालने लगी तभी प्लेटफॉर्म पर शोर हुआ "अरे ,कोई आदमी ट्रेन से गिर गया "शोर सुनते ही सब खिड़की-दरवाजे से बाहर लटकते हुए झाँकने लगे,मैं अपनी सीट पर बैठी, बेटी को कसकर पकडे हुए ये प्रार्थना करने लगी "प्रभु वो आदमी जो भी हो उसकी रक्षा करना, उसे अपने परिवार वालों तक सही सलामत पहुँचा देना " प्रार्थना करते-करते मेरी आँखों से आँसू बहने लगे,मेरी बेटी जब पांच छह महीने की थी तभी से वो मेरी आँखों में आँसू नहीं देख पाती थी मेरी आँखों में आँसू देखते ही वो रोना भूलकर मेरे आँसू पोछने लगती थी (अब इतनी छोटी बच्ची ऐसा क्यूँ करती थी वो तो परमात्मा ही जाने ) उस दिन भी वही हुआ वो रोना भूल मेरे आँसू पोछने लगी। गाडी रफ्तार पकड़ चुकी थी ,एक उम्मींद थी कि पतिदेव शायद किसी और कम्पार्टमेंट में चढ़ गए होंगे परन्तु इस बात की पुष्टि तो अब अगले स्टेशन पर ही होगी। 

    सच ही कहते हैं "अकेली औरत खुली तिजोरी की तरह होती है " उसे देखते ही चारो तरफ से लुटेरे आ धमकते हैं, मेरे साथ भी वही हुआ। मेरे बहुत से शुभचिंतक मेरे इर्द-गिर्द खड़े हो गए "कहाँ जाना है मैडम....पतिदेव छूट गए क्या......हमें बताइए हम आपको छोड़ देंगे.....आप बिलकुल ना घबराइए मैं हूँ न " ऐसे-ऐसे जुमले चारों तरफ से मेरे कानों में पड़ने लगे। कोई मेरी बेटी को पुचकार रहा है तो  कोई टॉफी दे रहा है। मेरी बेटी हर एक का हाथ झटक दे रही थी। बेटी की इस हरकत को देखते ही मेरे अंदर का डर (जो सिर्फ इस वजह से था कि -कही इनके साथ कुछ बुरा न हुआ हो,अन्यथा डरना तो मैंने सीखा ही नहीं, ना तब ना अब ) गायब हो गया, मैं खुद को संभालते हुए बोली -" आप लोगो चिंता ना करे......मैं अकेली ही जाने वाली थी.....पतिदेव तो सिर्फ बैठाने आये थे... हाँ,टिकट उनके पास रह गया है....मगर मेरे पास पैसे है....आप लोगो को परेशान होने की जरूरत नहीं है।" मेरे सब कुछ कहने के वावजूद.....कुछ कुत्ते ढीढ होते है न....मांस का टुकड़ा आसानी से अपने हाथो से जाने नहीं देना चाहते... वो बातचीत करने का सिलसिला जारी रखे थे, पर मैं भी ऐसे कुत्तों से डरने वाली तो थी नहीं, मैं भी आराम से उनके सवालों का जबाब दे रही थी। कहाँ तक जाना है मैडम ....ज्यादा दूर नहीं बस मोतिहारी जाना है। अच्छा, मैं भी मोतिहारी ही उतरुँगा....कोई दिक्क्त नहीं आप मेरे साथ हो लेना ---हाँ-हाँ जरूर,आप तो भले आदमी लग रहें है। दूसरी आवाज आई---अरे मैडम,मोतिहारी में किसके घर जाना है.....मैं सबको जनता हूँ---इस सवाल पर मैंने थोड़ी समझदारी दिखाई और अपने पापा का नाम ना लेकर बोली- अरे भाईसाहब, मुझे छेदी प्रसाद के घर जाना है.... मैं उनकी भतीजी हूँ.....आप तो मेरे चाचा को अच्छे से जानते होंगे न....मोतिहारी में ऐसा कोई नहीं जो उन्हें ना जाने....आप मुझे घर पहुंचा दीजियेगा.....चाचा बहुत खुश होंगे आपसे शायद, ईनाम भी देदे आपको। छेदी प्रसाद का नाम सुनते ही सबके तोते उड़ गए,कोई दबी हुई आवाज में तो कोई मुस्कुरा कर बोलने लगा -अच्छा तो आप छेदी प्रसाद की भतीजी है,एक जनाब तो गले को साफ करते हुए निकल लिये। एक-एक करके सब गदहे की सींग की तरह गायब होने लगे। छेदी प्रसाद हमारे पडोसी थे जो मोतिहारी में " दबंग " के नाम से जाने जाते थे। हमारे घर से उनका बहुत ही अच्छा रिश्ता था और अब भी है। मेरे माँ-पापा थे ही ऐसे जो खुद तो बड़े सीधे थे मगर बनती उनकी सबसे थी,सब पापा की बहुत इज्जत करते थे।

     अगले स्टेशन पर भी पतिदेव नहीं आये मुझे समझ आ गया कि -ये सफर मुझे अकेले ही तय करना है। ख़ैर, छेदी प्रसाद का नाम सुनते ही चील-कौओं का मड़राना तो बंद हो गया मगर मेरी फ़िक्र और परेशानी कैसे कम होती, मेरी  गोद में एक बच्ची,एक हैंडबैग और एक सूटकेस  ये सब लेकर मैं स्टेशन पर उतरूंगी कैसे,  गाड़ी भी बस दो  मिनट रूकती है। कहते हैं न जहाँ बुरे लोग है वहाँ अच्छो की भी कमी नहीं,स्टेशन आने पर एक भलामानस जो शुरू से ये सब देख रहा था मगर चुप था उसने हाथ बढ़ते हुए कहा " May I help you "मैंने भी स्वीकृति में सर हिला दिया। उसे भी वही उतरना था तो ज्यादा परेशानी  नहीं हुई,मेरे कहने पर वो मेरे सामान को प्लेटफॉर्म की दूसरी ओर रेलवे लाईन पार करते ही जहाँ मेरे पापा का ऑफिस था वहाँ तक पंहुचा दिया। मैंने उसे थैंक्स कहा और वो भी बड़े ही शालीनता के साथ हाथ जोड़कर चला गया। पापा के ऑफिस पहुँचकर मुझे चैन मिला,अब घर पहुँचने की फ़िक्र नहीं बस, इनकी चिंता हो रही थी। जब से सुना था कि -ट्रेन से कोई गिर गया है अंदर तक एक घबड़ाहट झकझोर रहा था,दिल इतनी तेजी से धड़क रहा था जैसे मुँह को आ जायेगा,बस ऊपर-ऊपर से तो सहज बनी रही और हर पल भगवान से प्रार्थना करती रही "वो बिल्कुल ठीक होंगे"। मेरे ट्रेन के तीन  घंटे बाद एक ट्रेन  थी, मुझे यकीन था वो उसी ट्रेन से तीन घंटे बाद मुझ तक जरूर पहुँचेगे। 

    खैर,अभी की परिस्थिति पर पहले फोकस करना था--ये सोच मैं पापा के ऑफिस में गई,अंदर जाने पर पता चला कि -पापा तो ऑफिस आये ही नहीं ,वो तो एक सप्ताह से ऑफिस नहीं आ रहें हैं। इतना सुनते ही मेरे पैरों के नीचे से जमीन निकल गई---ऐसा कैसे हो सकता है---क्या हुआ होगा पापा को---क्यूँ छुट्टी लिए है ? ऐसे कई सवालों ने मुझे घेर लिया। उस दिन ऑफिस में मुझे एक भी पहचान के लोग नहीं मिले जिनके साथ मैं घर तक  जाती और अंजानो का साथ मैं लेना नहीं चाह रही थी। उस शहर की सबसे बड़ी खराबी थी वहां जल्दी रिक्सा नहीं मिलता था,घर तो लगभग एक किलोमीटर से भी कम की दुरी पर था मगर उतना दूर भी सामान और बच्चें को लेकर मैं कैसे चल पाऊँगी। वैसे भी बेटी के होने के बाद से मैं बहुत कमजोर हो गई थी, चलने पर ही साँस फूलती थी,ऊपर से बेटी सीजीरियन हुई थी तो भारी समान लेकर चलना और मुश्किल था, मेरी बेटी का वजन भी तो  10 किलो था, मेरे तो पसीने छूटने लगे। मगर करती क्या,आज के जमाने की तरह मोबाईल तो था नही कि -एक बटन दबाओं और सारी समस्याओं का समाधान हो जाए। मेरे पास विकल्प तो था नही सो "चल अकेला "कहते हुए इस उम्मींद पर चल पड़ी कि -रास्ते में कोई तो पहचान का मिल जाएगा लेकिन,  उस दिन मेरी किस्मत शायद बहुत खराब थी, कोई नहीं मिला। 

     अब उस दिन, मेरी किस्मत बहुत खराब थी या बहुत अच्छी वो तो सफर ख़त्म होने के बाद ही पता चलता। खैर, रुक-रुककर,दम भरते हुए मैं किसी तरह घर पहुँची। सामान नीचे रखकर दरवाजा खटखटाने ही वाली थी कि -देख रही हूँ " दरवाजे पर बड़ा सा ताला लटका " अब तो मेरी क्या दशा हुई होगी ये बताने की जरूरत नहीं। दूसरा कोई रास्ता नही था तो उसी छेदी प्रसाद चाचा के घर का दरवाजा खटखटाया मैंने। चाची ने दरवाजा खोला -मुझे ऐसे हालत में देखते ही वो घबरा गयी,मुझे पकड़कर रोती हुई बोली -"क्या हुआ बेटा,तुम ऐसे हालत में ?"  आप समझ सकते हैं उस ज़माने में बेटियाँ,  बच्चें और सामान के साथ अकेले दरवाजे पर आ खड़ी हो तो क्या गुजरती थी सब पर, असंख्य शंकाये उन्हें घेर लेती थी। मैं रोती उससे पहले चाची ही दहाड़े मारकर रोने लगी। उनका रोना सुन भाभी बाहर आई (छेदी प्रसाद की बहु )वो चाची को मुझसे अलगकर मुझे अंदर लेकर गई....मेरी साँस चढ़ी हुई थी...उन्हेने मुझे पानी पिलाया....बेटी को गोद से लेकर उसे भी बिस्कुट दिया। (जैसा कि -मैंने पहले ही बताया है कि उनके घर से हमारे अच्छे संबध थे,उनकी बेटी नहीं थी तो वो लोगो मुझे संगी बेटी जैसा ही स्नेह देते थे )चाचा भी आ गए आते  सवाल-मेहमान कहाँ है ?

     मुझे जब थोड़ी साँस आई तो मैंने उन्हें सारा वृतांत सुनाया और उन्होंने बताया कि -मेरे नानाजी का देहांत हो गया है और मेरा सारा परिवार वही गया है। उन दिनों घर में फोन तो था नही और नेपाल में भी फोन करने की सुविधा नहीं थी। हाँ,इस  घटना के बाद  मेरे पापा ने घर में फोन लगवा लिया। अब मेरे पतिदेव का क्या हुआ ये जानने के लिए तीन घंटे इंतज़ार करने थे। अब तक तो खुद ही उलझी थी लेकिन अब एक-एक पल सालों के जैसे गुजर रहा था। मैं आज भी शुक्रगुजार हूँ भाभी की जिन्होंने मुझे बड़े प्यार से संभाला। मेरी बेटी  पापा-पापा कहकर सिसकती रही थी,रोने के कारण उसका बुखार और बढ़ता जा रहा था। खैर,8 बजे रात में दूसरी ट्रेन  का टाईम था, 7. 30 में ही भईया (चाचा के बेटे )मेरे पतिदेव को लेने के लिए स्टेशन चले गए। 8. 30 में जब वो वापस आये तो उनके साथ कोई ना था,वो बताए कि -पूरा स्टेशन ढूढ़ लिया मेहमान कही नही मिले,इतना सुनते ही चाची और रोने लगी,चाचा उन्हें समझाने लगे -हो सकता है दूसरी ट्रेन से आये---लेकिन सब जानते थे कि -उसके बाद सुबह तक कोई ट्रेन नही है.मैं अपनी आँसू को छुपाये  बेटी को सभालते हुए खुद को समान्य रखने की कोशिश कर रही थी और मन  ही मन बस प्रार्थना.......... बाहर के बरामदे में सभी  बैठे थे... सब खामोश---तभी छोटा अंकुर चिल्लाता हुआ आया  "फूफाजी आ गए " सब एक साथ दौड़ पड़ें,सबने उन्हें घेर लिया मेरा दिल कर रहा था कि -मैं भी दौड़कर उनसे जाकर लिपट जाऊँ-- मगर उस वक़्त के हमारे संस्कारों ने पैरों में बेड़ियों डाल रखी थी, भाभी मुझे कसकर पकड़कर खड़ी थी और मैं उनके छाती से लगकर फफक कर रो पड़ी,दुःख के आँसू को तो रोक लिया था ख़ुशी के आँसू झलक पड़े। उनकी एक झलक भी नहीं देख  पाई मैं---क्योंकि सब उन्हें घेरे थे। मैं अंदर दरवाजे से लगकर खड़ी थी वो जैसे ही बरामदे में चढ़े मेरी और उनकी निगाहे एक हो गई और दोनों के आँखें  बरस पड़ी । उनके कपडे जगह-जगह से फट्टे थे और गंदगी लगी थी,सर पर पट्टी बंधी थी हाथ-पैरो पर भी गहरे चोट लगे  जख्म दिख रहे थे ,मुझे समझते  देर लगी कि -"ये वही थे जिसके लिए मैंने दुआ की थी "

    हमें रात चाचा के घर ही गुजारनी पड़ी ,रात क्या दो दिन रहना पड़ा जबतक माँ-पापा नहीं आये। वो रात भुलाये नहीं भूलती...बेटी को निमोनिया था वो पूरी रात बुखार में तप रही थी उसे साँस लेने में दिक्क्त होती और पतिदेव को भी अंदुरनी चोट और डर की वजह से बुखार हो गया था। कमरे में आते ही वो मुझे पकड़कर ये कहते हुए फफक-फफक कर रो पड़ें --"आज तो एक पल को लगा जैसे मैं तुमसे हमेशा-हमेशा के लिए बिछड़ गया,मेरा अंत समय स्पष्ट दिख रहा था,यकीनन तुम्हारा  नेक कर्म होगा जिसने मुझे मौत के मुख से निकल लिया। " उसके बाद जो उन्होंने सुनाया उसे यादकर आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उन्होंने बताया कि -मैं ट्रेन पकड़ चुका था ,एक हाथ से मैं ट्रेन का दरवाजा पकडे था और मेरा दूसरा हाथ  एक आदमी ने पकड़ रखा था और अंदर खींचने की कोशिश ही कर रहा था तभी diversion पर (जहां ट्रैन पटरी बदलता है ) बहुत तेज झटका लगा और मेरा हाथ  छूट गया और मैं दूर दूसरी पटरी पर फेका गया, गहरी चोट के कारण मुझे बेहोशी सी आ गई थी,मैं उठ नहीं पा रहा था और उस पटरी पर (जिस पर वो गिरे थे )एक मालगाड़ी आ रहा था लेकिन,तभी किसी ने मुझे किनारे की ओर खींच लिया,वही  आदमी मुझे सहारा देकर स्टेशन पर लाया,मुझे पानी पिलाया मेरे जख्मों को भी धोया और पास के मेडिकल स्टोर ले जाकर मेरी मरहम-पट्टी करवाई,तब मैं तुम तक पहुंच पाया हूँ। इतना कहते-कहते वो मुझसे लिपटकर फिर रो पड़ें। 

   सारी रात वो डर-डरकर मेरा साथ पकड़ लेते और मैं पूरी रात कभी बेटी के सर पर ठंडे पानी की पट्टी रखती कभी इनके सर पर। मुझे होमियोपैथ का जितना ज्ञान था और उस वक़्त मेरे पास जितनी दवाईयां थी उससे रात भर दोनों का इलाज करती रही। परमात्मा ने मेरी सुनी और मेरी अगली सुबह रौशनी से भरपूर थी--दोनों का बुखार उतर चूका था,दोनों पापा-बेटी एक दूसरे को गले लगाया चैन से सो रहे थे। सुबह चाय-नाश्ता के बाद हम डॉक्टर के पास दोनों को लेकर गए,क्योंकि दोनों का चैकअप करवाना जरूरी था। चाची और भाभी ने मेरा इतना ख्याल रखा कि-आज तक मैं उनकी एहसानमन्द हूँ। 

    आज इस घटना को तेईस साल हो गए। उस तीन घंटे में हम दोनों ने यही महसूस किया था कि -शायद अब हम एक दूसरे से कभी नहीं मिल पाएंगे,वो तीन घंटे तीन साल की तरह गुजरा था हम पर। मगर ---आज मैं सोचती  हूँ कि -"उस तीन घंटे में हम दोनों एक दूसरे से दूर जा रहे थे या और करीब आ रहें थे ?"

    अरेंज मैरिज की एक खास बात होती है "यहाँ हम एक दूसरे से बिलकुल अनभिज्ञ होते।एक दूसरे से प्यार होने की बात तो दूर एक दूसरे को ठीक से देखे तक नहीं होते हैं और ऐसे में एक दिन हमें एक डोर में बांध दिया जाता है और आज्ञा दी जाती है कि -तुम्हे साथ रहना भी है और निभाना भी। हमारे समय में ऐसी स्थिति में कोई विकल्प नहीं होता था तो पहले ही दिन से मानसिकता ही यही होती थी " तन-मन समर्पण की " तो आधी समस्या यही सुलझ जाती थी। मगर आधी का क्या ? आधी में होता ये है कि -सिर्फ एक दूसरे से अपेक्षा ही रखी गई और अपना-अपना  कर्तव्य नहीं निभाया गया तो जीवन कलह-क्लेश से भर जाता है और यदि छोटे-छोटे मासूम से ख़ुशी और दुःख के पल को संजोया गया और उन पलों में आपसी मतभेद ना कर सीख ले लिया गया तो वही पल एक दूसरे को करीब और करीब लाते जाते हैं। 

    उस दिन के तीन घंटे ने हमें एक दूसरे का मोल समझा दिया था। हमारे रिश्तें में यही होता था जीवन में आये ऐसे पलों ने हमें बहुत कुछ सिखाया और हम एक दूसरे के करीब और करीब आते चले गए...हमनें कभी एक दूसरे पर दोषारोपण नहीं किया ....सफर में जब भी मैं गिरी तो उन्होंने संभाला....वो गिरे तो मैंने अपनी बाँहों का सहारा दिया और जीवन सफर अनवरंत आगे बढ़ता रहा..."25 सावन " कब गुजर गया पता ही नहीं चला.....बस,बालों की सफेदी वक़्त का एहसास करा रही है । हमारे लिए तन की दुरी ने कभी मायने नहीं रखा....आज भी मैं उनसे बहुत दूर हूँ तकरीबन 1415 किलोमीटर दूर मगर सिर्फ तन से मन हरपल एक दूसरे के पास है और हमेशा पास ही रहेंगे। आज ही के दिन वो मेरे "हमसफ़र" बने थे, अब परमात्मा ने कब तक का साथ लिखा है नहीं जानती मगर जब तक जिन्दा है एक दूसरे के सच्चे हमसफ़र थे और रहेंगे..... 

47 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर संस्मरण, आपकी लेखनी पढ़ने वाले को ऐसे बांध लेती है कि एक बार पढ़ना शुरू करने पर छोड़ नहीं सकते।एक बहुत ही रोमांचक अनुभव को अपने शब्दों के माध्यम से जीवंत कर दिया है। आपके विवाह की वर्षगाँठ पर हार्दिक शुभकामनाएं !

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    1. दिल से शुक्रिया अनीता जी,सराहना सम्पन प्रतिक्रिया और आपकी अनमोल दुआओं के लिए हृदयतल से आभार,सादर नमन आपको

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  2. खूबसूरती से संस्मरण को शब्दों में बाँधा है ।
    जीबन में अपने दायित्त्वों को पूरा करने के लिए बहुत कुछ त्याग करना पड़ता है ।
    एक बार फिर आज के विशेष दिन के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ

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    1. जी दी,आपने सही कहा ,दिल से शुक्रिया दी ,आपका आशीर्वाद यूँ ही बना रहें ,सादर नमन आपको

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  3. सही कहा आपने मुसीबतें भी कई बार कुछ अच्छा कर जाती हैं और ये छोटी-छोटी दूरियाँ एक -दूसरे का मोल समझा कर दिलों को आपस में जोड़ देती हैं...।
    बहुत ही हृदयस्पर्शी संस्मरण
    आप दोनों को शादी की सालगिरह की अनंत शुभकामनाएं । आपका साथ एवं ये पवित्र प्रेम सदा यूँ ही बना रहे भगवान आप और आपके परिवार पर अपनी कृपादृष्टि सदा बनाए रखे।

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    1. दिल से शुक्रिया सुधा जी,आपकी स्नेहिल दुआओं ने मुझे भावविभोर कर दिया,आपका स्नेह यूँ ही बना रहें ,सादर नमन आपको

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  5. बहुत ही खूबसूरती से आपने संस्मरण को व्यक्त किया अगर
    कोई एक बार पढ़ना सुरू कर दे तो पूरा पढ़े बिना कोई छोड़ नहीं सकता इतना रोमांचक है

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    1. दिल से शुक्रिया बच्चे ,जीवन की यादें सरमाया होता है वो लिखने बेठों तो शब्द खुद-ब-खुद निकलते जाते है, तुम्हे भी ढेर सारा प्यार

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  6. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 03-06-2021को चर्चा – 4,085 में दिया गया है।
    आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद सहित
    दिलबागसिंह विर्क

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    1. मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदयतल से आभार सर,सादर नमन

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  7. मैम,मुझे तो पता ही नहीं था कि वो महिला कोई और नहीं बल्कि आप थी अंत में जब नीचे प्रोफाइल देखीं तब पता चला कि ये संस्मरण आप का है शादी की सालगिरह की हार्दिक शुभकामनाएं आप और सर का रिश्ता हमेशा ऐसे ही बरकरार रहे है आप दोनों खुशी के हो या दु:ख के बादल हमेशा एक दूसरे की ताकत बने! 💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐🎂🎂

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    1. प्रिय मनीषा,तुम्हारी प्यारी दुआओं के लिए दिल से शुक्रिया बच्चे ,तुम्हे भी ढेर सारा प्यार तुम भी यूँ ही आगे बढ़ती रहों

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  8. छोटी-छोटी दूरियां ही रिश्तों की मोल समझा देती है। बहुत अच्छा संस्मरण.शादी सालगिरह की हार्दिक बधाई.

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  9. आपका यह सफर वाकई में परेशानी भरा था । सदैव की तरह बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति । वैवाहिक वर्षगांठ की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं कामिनी जी ।

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    1. दिल से शुक्रिया मीना जी,,आपका स्नेह यूँ ही बना रहें,सादर नमन आपको

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  10. बहुत ही सुंदर संस्मरण लिखा आँखें नम हो गई।
    वैवाहिक वर्षगाँठ की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ आदरणीय कामिनी दी।
    सादर

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    1. दिल से शुक्रिया प्रिय अनीता,तुम्हे भी ढेर सारा स्नेह

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  11. कामिनी जी,पहले तो आपकी शादी के स्वर्णिम पच्चीस साल पूरे होने के लिए आपको अनंत शुभकामनाएं💕❣️💐💐आप,और भाई साहब तथा बेटी हमेशा ऐसे ही खुश और लंबा जीवन जिएं यही ईश्वर से आपके लिए प्रार्थना करती हूं 🌹🌹🙏🙏
    आपका लेख इतना जीवंतता लिए था कि एक बार में पूरा पढ़ गई । जैसे पूरा वाकया अपनी आंखों से देख और महसूस कर रही हूं । एक बार फिर आपको असंख्य बधाई । ❤️❤️☺️☺️

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    1. आप सभी की शुभकामनायें और आशीर्वाद अनमोल है मेरे लिए जिज्ञासा जी । आपको अपने सफर में सहयात्री बना पाई ये यह जानकार ख़ुशी हुई और लेखन सार्थक हुआ ,सादर नमन

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  12. उत्तर
    1. आपबिती है सर और अक्सर आपबिती ही तो कहानी बन जाती है, आप कहानी ही समझ लें, हृदयतल से आभार एवं सादर नमस्कार आपको

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  13. अंत भला तो सब भला.
    संस्मरण लिखने की शैली बहुत उम्दा.

    मैंने ऐसे विषय पर; जो आज की जरूरत है एक नया ब्लॉग बनाया है. कृपया आप एक बार जरुर आयें. ब्लॉग का लिंक यहाँ साँझा कर रहा हूँ-
    नया ब्लॉग नई रचना

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    1. स्वागत है आपका रोहिताश जी,सराहना हेतु दिल से शुक्रिया,मैं जरूर आऊंगी आपके ब्लॉग पर,सादर नमन

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  14. आपकी यह आपबीती रोमांचक भी है और प्रेरक भी कामिनी जी। आपने दाम्पत्य-जीवन के विषय में जो भी समझा-विचारा एवं अभिव्यक्त किया, मैं उससे सहमत हूँ। विवाह की रजत जयंती की बधाई (विलम्बित ही सही, स्वीकार कीजिए)। मेरे विवाह की रजत जयंती विगत एक दिसम्बर को थी और यह मेरा तथा मेरे परिवार का सौभाग्य था कि इस विकट काल में भी हम एक साथ आकर पुणे के समीप हरिहरेश्वर नामक एक रमणीक स्थल पर प्रसन्नतापूर्वक उस अवसर का उत्सव मना सके। आपकी इस आपबीती ने मुझे भी अपनी एक आपबीती (संस्मरण) लिखने के लिए प्रेरित किया है। इस निमित्त प्रयत्न करूंगा।

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    1. सहृदय धन्यवाद जितेंद्र जी,सराहना हेतु दिल से शुक्रिया..शुभकामनायें जब भी मिले सिरोधार्य होती है...दिल से धन्यवाद आपका...बेहद ख़ुशी हुई कि-आप ऐसे वक़्त में भी साथ थे...परमात्मा आपका साथ बनाये रखें...आप अपना संस्मरण जरूर साझा करे.. इंतजार रहेगा ,सादर नमन

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  15. बहुत सुंदर संस्मरण। यह रोमांचित तो करता ही है सीख भी दे जाता हैं। आपने बिल्कुल सही कहा कि 'यदि छोटे-छोटे मासूम से ख़ुशी और दुःख के पल को संजोया गया और उन पलों में आपसी मतभेद ना कर सीख ले लिया गया तो वही पल एक दूसरे को करीब और करीब लाते जाते हैं।' इस कथन को तो सभी को याद रखना चाहिए।

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    1. सहृदय धन्यवाद विकाश जी ,सराहना हेतु आभार एवं सादर नमन आपको

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  16. बहुत ही सुंदर संस्मरण, कामिनी दी। उससे भी सुंदर है आपकी लेखन की स्टाइल।

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  17. कामिनी दी, सॉरी। कल मैं टिप्पणी करने ही वाली थी कि कोई आ गया था तो जल्दी जल्दी में मैं बराबर लिख नही पाई। ट्रेन के उस हादसे के बारे में सोच कर ही दिल कांप उठता है। ईश्वर आप दोनों की जोड़ी सलामत रहे...आप अमर सुहागन रहे यही शुभकामना।

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    1. सहृदय धन्यवाद ज्योति जी,सॉरी किस बात की ज्योति जी,आपने इतना सुंदर स्नेहमयी आशीर्वाद दे दिया,इससे बढ़कर और क्या चाहिए। हम अनजान एक दूसरे के लिए निस्वार्थ स्नेह रखते हैं यही काफी है। बहुत बहुत धन्यवाद और आभार आपका। हाँ वो हादसा भुलाये नहीं भूलता। सादर नमन आपको

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  18. हादसे वाली घटना व मन की भावनाओं का सजीव व मार्मिक चित्रण!... मन को झकझोरने देने वाला वृतान्त! मुझे भी स्मरण है, जब मैं 19 वर्ष का था, इसी तरह जबर्दस्त भीड़ वाली चलती ट्रेन में चढ़ा था और एक हाथ से ट्रेन का हैंडल पकड़े बाहर लटक रहा था। ईश्वर ने ही रक्षा की थी और मैं नीचे गिरने से बच गया था। ईश्वर सदैव आप सभी को सुरक्षा प्रदान करता रहे।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद सर,जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएँ घटित हो जाती है कि-परमात्मा के आस्तित्व को नकारना मुश्किल हो जाता है। सादर नमन आपको

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  19. सुंदर, सार्थक रचना !........
    ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  20. पिछले जून में इसे लिखा गया और आज पढ़ा है मैंने। आपके इस ब्लॉग की सूचना रीडिंग लिस्ट में या मेल में नहीं आती मेरे पास। इस पर कुछ लिखें तो मुझे लिंक भेज दिया करें।
    प्रिय कामिनी, इस संस्मरण को पढ़कर आपके प्रति मेरे मन में जो सम्मान था वह कई गुना बढ़ गया। सचमुच आप बहुत धैर्यवान और हिम्मतवाली स्त्री हैं। ईश्वर हमेशा आपकी जोड़ी को खुशहाल रखे।
    यहाँ एक बात और कहना जरूरी है। छेदीलाल चाचाजी एवं उनके परिवार जैसे पड़ोसी पाना अब दुर्लभ हो गया है। यदि वे लोग साथ न होते तो आपके लिए वह परीक्षा की घड़ी काटना कठिन हो सकता था।

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    1. मीना जी,देर कभी नहीं होती,बस सन बदल दीजिये महीना तो वही चल रहा है ,आपको संस्मरण अच्छा लगा जानकार ख़ुशी हुई। सच कहूं तो धैर्य और हिम्मत परिस्थितियां सीखा देती है।
      आपने ये भी सही कहा की छेदीलाल चाचा जैसा परिवार और पड़ोसी अब मिलना मुश्किल है। आपका तहे दिल से आभार इस पुरानी पोस्ट पर आने के लिए

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