कभी-कभी ऐसा भी होता है कि चंद मिनटों का सफर..कई घंटो का हो जाता है,इतना ही नहीं सरल सा रास्ता भी मुश्किलों से भरा हो जाता है,ऐसा ही एक सफर तय किया था मैंने आज ही के दिन "2 जून" को।
बात उन दिनों की है जब आज से चार साल पहले मैं पहली बार मुंबई आयी थी। मुझे आए हुए अभी एक महीना भी नहीं हुआ था। मायानगरी की अदाओं से मैं अभी बिल्कुल अनजान थी, इसके मिजाज के बारे में थोड़ा बहुत सुना पढ़ा तो था मगर अनुभव के नाम पर सब जीरो था। ना रास्तों का ढंग से पता था ना ही बाजार-हाट का, ना ही किसी व्यक्ति विशेष से परिचय था। पहचान के नाम पर हमारी एक बुजुर्ग हाउस ऑनर थी जो मराठी थी ना उनकी कोई बात मेरी समझ में आई ना ही मेरी कोई बात उनके पल्ले पड़ती बस, दुआ सलाम तक ही बातें होती थी।
एक सप्ताह तो घर की सारी व्यवस्था में ही लग गया। हम माँ-बेटी ही थे कोई सहयोगी भी नहीं था तो हमें बहुत सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा जो कि अक्सर नए शहर में जाने पर होता ही है, इसके लिए हम माँ-बेटी मानसिक रूप से पहले से ही तैयार थे। 15 दिन में हम एडजेस्ट कर गए थे। फिर बेटी काम की तलाश में ऑडिशन देने जाने लगी,साथ में मुझे भी जाना होता क्योंकि नया शहर होने के कारण थोड़ा मैं भी ड़रती थी थोड़ी वो भी झिझकती थी। लेकिन उसके साथ मेरे जाने का सिलसिला भी जल्दी ही ख़त्म हो गया बहुत जल्द बेटी अकेले आने-जाने लगी। अब समस्या मेरी हो गई क्या करूँ मैं...पुरे दिन घर में अकेली। तो ढूंढ़ते-ढूंढते एक पार्क मिल गया और मुझे इस पार्क का सहारा। मेरा ये ब्लॉग का सफर भी इसी पार्क से शुरू हुआ था। घंटे दो घंटे बैठती थी जो विचार उमड़ते उन्हें मोबाइल में नोट कर लेती, थोड़ा दिल भी बहल जाता और खुली हवा में सांस लेने को भी मिल जाता वरना, मुम्बई के माचिस के डिब्बियों जैसे घर में दम घुटने लगता था।
रोज तो नहीं मगर जब भी मेरा दिल नहीं लगता, मन उदास हो जाता तो मैं इसी पार्क में आकर बैठ जाती थी । ऐसा ही एक दिन था "2 जुन मेरी शादी की सालगिरह का दिन"। पहली बार आज के दिन घर-परिवार से भी दूर थी और पतिदेव से भी। बेटी का भी उसी दिन एक जरूरी वर्कशॉप का क्लास था उसका जाना जरूरी था वो सुबह 8 बजे ही निकल गई।पुरे दिन की तनहाई और घर का खालीपन मेरे लिए असहनीय हो रहा था। गर्मी बहुत थी तो दिन तो जैसे-तैसे गुजार लिया शाम होते ही मैं पार्क के लिए निकल पड़ी जो घर से महज़ आधे किलोमीटर की दुरी पर ही था। बेटी घर से जाने के बाद बस एक बार दोपहर में कॉल की थी तो बोली कि बस एक घंटे में घर आ जाऊँगी। उसके बाद उसने कोई कॉल नहीं किया मैं जब भी फोन करूँ तो फोन स्विच ऑफ मिलता रहा। पहली बार वो मुम्बई में घर से इतनी देर बाहर थी।नया शहर और माहौल के कारण दिल में बुरे-बुरे ही ख्याल आ रहें थे।उसका एक दोस्त भी साथ में था उसका फोन भी स्विच ऑफ ही जा रहा था। दोस्त भी कोई बहुत दिनों का परिचित नहीं था सो मन कभी-कभी अनजान शंकाओं से भर जा रहा था। क्या करें "हम बेटियों की मायें कभी अच्छा सोच ही नहीं पाती, हर वक़्त दिल में एक डर जो घेरे रहता है"।
खैर, मैं पार्क में बैठी खुद को बहलाने की कोशिश में लगी थी। ऐसे वक्त में अक्सर ऐसा भी होता है कि आप जिसे भी फोन करो वो फोन नहीं उठाता।कभी-कभी ऐसी भी परिस्थिति बनती है जब आप किसी को बात करने के लिए ढुंढते है और आप को कोई भी नहीं मिलता। मेरे साथ भी उस दिन कुछ ऐसा ही हो रहा था।शाम के 7.30 बज गए, हल्का अँधेरा छा रहा था तभी अचानक से बादल उमड़-घुमड़ के आ गए और तेज हवा चलने लगी। मैं तेज क़दमों से घर के लिए निकल पड़ी सोचा मैं तो घर पहुँचू....क्या पता बेटी घर पहुँच गई हो...उसके फोन की बैटरी ख़त्म हो गई हो...यही सब सोचते-सोचते मैं घर की ओर बढ़ रही थी कि यकायक तेज बौछारों के साथ बारिश शुरू हो गई। अचानक से इतनी तेज बारिश की मैंने कल्पना भी नहीं की थी। फिल्मों में देखती थी कि हीरो-हीरोइन घूम रहें है और अचानक बिजली कड़कने लगी तेज बारिश शुरू हो गई...ऐसा देख हम सब खूब हँसते थे कि-मुम्बईया फिल्मों में हीरो-हीरोइन के मिलते ही अचानक से बारिश कैसे आ जाती है? लेकिन आज ये मेरे साथ सच में हो रहा था, ये अलग बात थी कि-मेरे साथ मेरा हीरो नहीं था।
खैर,तेज बारिश में भीग तो गई थी मगर तेज हवाओं के साथ गिरती बौछारों से ऐसा लग रहा था कि वो मुझे उड़ा कर ही ले जाएगी तो, खुद को बचाने के लिए मैंने एक छोटे से चर्च के सेड में छुप जाना बेहतर समझा सोची, बारिश थोड़ी देर में तो रुक ही जाएगी फिर चली जाऊँगी। (मुंबई में जगह-जगह छोटे-छोटे ओपन चर्च मिल जाते हैं)लेकिन बारिश थी की रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। मेरा दिल बहुत घबराने लगा ऊपर से बेटी की चिंता और ज्यादा सता रही थी समझ ही नहीं आ रहा था कि किसको फोन करूँ किससे सहायता मांगू। बस,भगवान से गुहार लगा रही थी कि मेरी बेटी जहाँ हो सुरक्षित हो। घर पर भी किसी को फोन नहीं कर सकती थी वो दिल्ली में बैठे क्या करते अलबत्ता घबरा और जाते,सो अपनी पीड़ा अकेले ही सह रही थी। बारिश की बौछार इतनी जबरदस्त थी कि एक घंटे के अंदर पूरा सड़क तालाब बन गया। उन दिनों हम "वर्सोवा गांव"(अंधेरी) के इलाके में रहते थे। उस बस्ती में गंदगी बहुत थी तो बारिश के पानी में कीड़े-मकोड़े तैरने लगे। मैं जहाँ खड़ी थी वहाँ भी जब मेरा पैर एक फीट पानी में डूब गया तो मैंने सोचा अब यहाँ रुकने से बेहतर है मैं इसी पानी में गिरते-पड़ते ही सही घर पहुँचु। अभी सोच ही रही थी कि -फोन की घंटी बजी देखा तो पतिदेव का फोन था फोन उठाते ही उन्होंने कहा "Happy anniversary" मैं इधर से रुआंसी होकर बोली - "Happy anniversary" बहुत मुश्किल से मैं अपना रोना रोक पा रही थी लेकिन, उन्हें समझ आ गया वो बोले क्यूँ रो रही हो...अगले साल फिर एक साथ होंगे...बहुत तेज़ आवाज़ आ रही है कहाँ हो तुम। (अब उन्हें कौन बताए कि-मेरे रोने की वजह वो नहीं है जो वो सोच रहें हैं ) मैंने झूठ बोला कि-बहुत तेज़ बारिश हो रही है मैं बालकनी में हूँ न इसीलिए आवाज़ आ रही है,कैसे बताती कि मैं फंसी हूँ मुसीबत में। अभी पतिदेव से बात कर ही रही थी कि बेटी का फोन आया मैंने झट फ़ोन ये कहते हुए डिस्कनेक्ट किया कि-बाबू का फोन आ रहा है...बाद में बात करती हूँ। दूसरी तरफ से बेटी की आवाज सुनकर मेरी जान में जान आयी। उसने कहा-मम्मा मैं बिलकुल ठीक हूँ... घबराना नहीं मैं बारिश में फंसी हूँ...कोई ऑटो भी नहीं मिल रहा है....घर आकर सारी बात बताऊँगी...तुम परेशान नहीं होना...तुम कहाँ हो .....?? मैंने उसे भी वही जबाब दिया जो पतिदेव को दिया था। अगर बता देती तो अब बेटी मेरे लिए घबरा जाती।
खैर,जैसे-तैसे,गिरते-पड़ते मैं घर पहुँची। उस पानी भरे नालीनुमा सड़क पर मरे हुए चूहों से लेकर,मछलियाँ, कीड़े-मकोड़े सब तैर रहे थे मैंने किसी पर ध्यान नहीं दिया...लक्ष्य एक ही था बस,कैसे भी घर पहुँच जाऊँ। ऐसा नहीं था कि-उस सड़क पर मैं ही अकेली चल रही थी मेरे साथ बहुत से लोग चल रहें थे मगर,वो मुंबई के इस हालात के आदी थे उन्हें कोई खास फर्क ही नहीं पड़ रहा था और मेरे लिए तो वो "बैतरणी" थी जिसे पार करना एक चुनौती। 7.30 की पार्क से निकली 10.00 pm में घर पहुँची। ताला खोल ही रही हूँ कि पीछे से बेटी और उसका दोस्त दोनों आ गए,मेरी ऐसी हालत देख वो अचम्भित हो पूछी -ये क्या हाल हो गया है..कहाँ थी तुम ? मैंने कहा-"अभी कुछ ना पूछो...सैकड़ो कीड़े मेरे जिस्म पर चल रहे हैं...पहले उन्हें हटा लेने दो"। ताला खोलते ही मैं सीधी बाथरूम में भागी। बेटी भी पूरी तरह भीगी हुई थी मेरे बाद वो भी पहले नहाने ही गई। नहाने के बाद मैंने कॉफी बनाई क्योंकि बारिश में उतना भीगने के बाद कंपकपी सी हो रही थी। तब तक उसका दोस्त भी नहाकर आ गया हम तीनों कॉफी पीते-पीते अपनी अपनी आपबीती सुनाने लगे।
बेटी ने बताया कि-क्लास तो तीन बजे तक ही था लेकिन जैसे ही क्लास खत्म हुआ थियेटर जगत के एक बड़े एक्टर आ गए, ऑर्गनाइजर ने कहा कि-आप यदि इनका वर्कशॉप अटेण्ड करना चाहे तो कर सकते हैं। कोई चार्ज तो था नहीं सो हम बहुत ज्यादा ही खुश हो गए और क्लास में चले गए उन लोगो ने हमारा फोन स्विच ऑफ करवाकर पर्स बाहर ही जमा करवा दिया, अत्यधिक उत्साह में हम दोनों आपको बताना ही भूल गए और एक बार अंदर चले गए तो बाहर नहीं आ सकते थे। बेटी का दोस्त जिसका नाम अंकित था उसने मुझे संतावना देते हुए कहा-"आंटी क्यूँ घबरा जाती हो....दामिनी मेरी बहन जैसी है...मैं जब इसके साथ रहूँ तो आप बेफिक्र रहो करो....आपकी बेटी को कही अकेला नहीं छोड़ूँगा"। उसकी ये बातें सुन मैंने उसे गले लगा लिया आज भी वो मेरी बेटी का भाई ही है,अब तो वो मुंबई में नहीं रहता मगर रिश्ता नहीं तोडा है। मैं सोचती हूँ कि-आज के खराब माहौल में हम अच्छे लोगों पर भी शक करने लगते हैं,लेकिन जब तक किसी के साथ वक़्त नहीं बिताओं कैसे पता चलेगा कि-कौन अच्छा,कौन बुरा।
खैर,उसे जब पता चला कि आज मेरी शादी की सालगिरह है तो उसने भी मुझे विश किया। घर में ज्यादा कुछ तो था नहीं तो बस,पूरी और आलू की सब्जी बनाई और तीनो साथ बैठकर खाना खाये। ये सब करते-करते रात के एक बज गए थे। पतिदेव से दुबारा बात भी नहीं हुई। बस,ऐसे ही मनाया मैंने "मुंबई की पहली बारिश में अपनी शादी की सालगिरह"। रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे मैं सोच रही थी कि-माँ ठीक ही कहा करती थी "सफर छोटा हो या बड़ा उसका रास्ता अनिश्चित ही होता है"। आज शाम 6 बजे जब मैं घर से निकली थी तो आसमान बिल्कुल साफ़ था मैंने कल्पना भी नहीं किया था कि-मेरा ये छोटा सा टहलने जाने वाला सफर भी इतना "Adventures" हो जायेगा।
सच,"ना जिंदगी का पता है ना सफर का" सब कुछ अनिश्चित।