"मुंबई की लोकल ट्रेन" इससे कौन परिचित नहीं है। सर्वे बताती है कि रोजाना लगभग 75 लाख लोग इस ट्रेन से सफर करते हैं। तो मान ले कि-एक दिन में स्विट्जरलैंड जैसे देश की पूरी आबादी और एक साल में संसार की एक तिहाई आबादी जितने लोग मुंबई लोकल ट्रेन से सफ़र कर लेते हैं। भले ही बहुत से देशों में बुलेट ट्रेन है जो बहुत ज्यादा स्पीड से दौड़ सकती है मगर वो "आमची मुंबई"की लोकल ट्रेनों के जैसे इतने यात्रियों को लेकर नहीं दौड़ सकती। इसलिए इसकी शान ही अनोखी है।
जब इतनी बड़ी आबादी हर दिन सफ़र करेगी तो जाहिर सी बात है कि लोगों को कई मुश्किलों का सामना भी करना पड़ता। पहले तो समय से ट्रेन पकड़ने की लड़ाई, फिर खचाखच भरे ट्रेन में अजनबियों से धक्का-मुक्की कर अपने लिए खड़े भर रहने के लिए जगह की खातिर लड़ाई, एक बार ट्रेन में चढ़ जाने के बाद खुद को ट्रेन में दबने से बचाए रखने के लिए लगातार जोर आजमाइश, और फिर किसी तरह सफर पूरा कर लेने के बाद सही सलामत अपने गंतव्य स्टेशन पर उतरने की लड़ाई। ये लड़ाई तो वो लोग करते हैं जो अपना सफर सावधानी पूर्वक सुरक्षित तय करना चाहते हैं। लेकिन दरवाजे पर लटक कर सफर करने को मजबूर लोगों को तो अपनी जीवन रक्षा की लड़ाई भी लड़नी होती है। ये अलग बात है कि कुछ लोग हीरोपंती में और लापरवाहियों की वजह से अपनी जान गवा देते हैं। आँकड़ों के मुताबिक रोजाना 10 से 12 लोग इस लोकल ट्रेन के रास्ते में अपनी जान गवां देते हैं।
तो हम कहना ये चाहते हैं कि -मुंबई महानगर की जीवन रेखा "मुंबई की लोकल ट्रेन" ये सिर्फ एक सवारी गाड़ी नहीं है जो यात्रियों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक किफायती सफर कराती है बल्कि ये पटरियों पर दौड़ता हुआ एक शहर है। जिसमे सफर करना और सहयात्रियों के साथ निभाना भी एक कला है। यदि आप इस कला से वाकिफ नहीं है तो आपके लिए सफर दुस्कर ही नहीं होगा बल्कि एक दुःस्वप्न साबित होगा।
एक दिन मैंने भी किया था इस "मुंबई लोकल ट्रेन" में ऐसा सफर जो भुलाये नहीं भूलती।
मुंबई जाने के बाद सबसे ज्यादा उत्साहित मैं दो चीजों के लिए थी पहले मरीन ड्राइव जाने के लिए और दुसरा लोकल ट्रेन में सफर करने के लिए और ये दिनों काम हमने एक ही दिन किया।उस वक्त हम मीरा रोड में रहते थे। मेरी बेटी के कुछ दोस्त भी साथ रहते थे।हम दिन के 11-12 बजे के बीच निकलते और रात को 11-12 बजे ही लौटते।हम लोकल से कहीं भी जाते तो इसी टाइम टेबल से।उस वक्त भीड़ थोड़ी कम होती थी । वैसे तो कई बार इस टाइम पर भी ज्यादा भीड़ का सामना करना पड़ा था,कई बार मैं भीड़ में दबी भी थी,कई बार मेरा ही दुपट्टा मेरे ही गले को जकड़ लिया करता था, लेकिन बेटी के लड़के दोस्त मुझे बचा लिया करते थे। मेरी बेटी के दोस्तों से मेरा रिश्ता बड़ा परफेक्ट है। एक तरह से मैं जगत माता हूँ यानि सबकी माँ और एक अच्छी दोस्त भी।सब मेरे साथ बहुत खुश भी होते हैं और मस्ती भी करते हैं।इस लिए वो जहाँ जाते तो मुझे साथ लेकर ही जाते और हम जहाँ भी जाते ज्यादातर लोकल से ही जाते।इस तरह मुझे लगता था कि लोकल ट्रेन के सफर का अनुभव हो गया था मुझे। लेकिन मैं ग़लत थी असली अनुभव होना अभी बाकी था।
किस्सा तब शुरू होता है जब मुंबई से मेरी वापसी थी। मेरी ट्रेन बांद्रा टर्मिनस से थी। मीरा रोड से बांद्रा टैक्सी में जाना काफी खर्चीला था और लोकल से कुल मिलाकर कर 50-60 रुपए। मैंने थोड़ी कंजूसी की। बेटी का एक लड़का दोस्त जिसका नाम रजत है उसने भी मेरा साथ दिया।(रजत हमें बांद्रा तक छोड़ने आ रहा था) जबकि बेटी राज़ी नहीं थी। सफर में सावधानी बरतते हुए हमने टाइमिंग वही 11 बजे का तय किया। हमारी ट्रेन शाम को 4 बजे थी और हम 11 AM तक मीरा रोड के स्टेशन पर थे। हमारे पास 5 घंटे थे और सफर था बस 45-50 मिनट का। अपनी तरफ से पूरी होशियारी की थी हमने लेकिन मुंबई लोकल ने भी ठान रखी थी कि" वापस जा रही हो तो मेरे असली सफर की यादें तो साथ लेती जाओं"
11 बजे से खड़े-खड़े 12 बज गए लेकिन एक भी ट्रेन में घुसने की गुंजाईस नहीं थी इतनी खचाखच भरी हुई थी। हमारे पास ज्यादा तो नहीं मगर सामान था एक बड़ा ब्रीफकेस और दो छोटे-छोटे बैग। ब्रीफकेस रजत के हाथ में था और बैग हम दोनों माँ-बेटी के हाथ में। जब 12 बज गए तो रजत ने कहा-आंटी हम उल्टी दिशा का ट्रेन पकड़ते हैं यानि विरार के तरफ चलते हैं। क्योंकि उधर की ट्रेन थोड़ी खाली आ रही थी, विरार से फिर वही ट्रेन वापसी आती है। हमने जोड़-घटाव किया कि -विरार पहुंचने में आधा घंटा और फिर वहाँ से बांद्रा एक डेढ़ घंटे, कुल मिलकर हम दो घंटे में बांद्रा पहुंच जायेगे और हमारे पास अभी चार घंटे है। अच्छी तरह समझ-बूझकर हम विरार की ओर चल पड़ें। लेकिन पता नहीं था कि आगे क्या होने वाला है।
हमारी ट्रेन किसी कारणवश विरार ना जाकर उससे पहले वसई रोड के एक सुनसान स्टेशन पर जाकर रुक गई,पता चला ये ट्रेन नहीं जाएगी मुख्य स्टेशन से दूसरी ट्रेन पकड़ना होगा। और मुख्य स्टेशन की जो हालत थी उसे दूर से देखकर ही हमारे पसीने छूट गए। लेकिन दूसरा कोई रास्ता नहीं था अब यहाँ से टैक्सी पकड़ने का मतलब कि हम वक़्त पर पहुँचेगे या नहीं कोई गारंटी नहीं थी,हमें किसी भी तरह लोकल ही पकड़नी पड़ेगी। हर पाँच-दस मिनट के अंतर् पर आने वाली लोकल किसी कारणवश एक घंटे बाद आई। इन सब चक्करों में 1. 45 हो गया था तो जो ट्रेन आने वाला था उसे हमें किसी भी हाल में पकड़ना ही था। रजत ने कहा-आंटी आप दोनों लेडीज डब्बे में चढ़ जाए और मैं सामान वाले में चढ़ जाऊँगा। ये राय कर हम ट्रेन आते के साथ एक्शन में आ गए। रोज सफर करने वाले लोगों के आगे हम माँ-बेटी का टिकना एक जंग के सामान था। ट्रेन पर चढ़ते वक़्त वहाँ कोई किसी पर जल्दी मुरव्वत नहीं करता। हम माँ-बेटी जैसे-तैसे ट्रेन में घुस गए। रजत के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी। ट्रेन चल पड़ी मैंने उसे जोर से आवाज लगाकर ब्रीफकेस पकड़ाने को कहा वो बेचारा चलती ट्रेन के साथ दौड़ता रहा मगर ब्रीफकेस पकड़वाने में असफल रहा।
खैर,हम तो ट्रेन में और सामान छूट गया। थोड़ी देर बाद रजत का कॉल आया कि-10 मिनट में ट्रेन आ रही है मैं वो पकड़ लूँगा आप चिंता ना करें ,सुनकर थोड़ी राहत हुई। दिल्ली के लिए हमारी ट्रेन 3. 50 में थी और हम बांद्रा पहुँच रहे हैं 3. 40 में। रजत का कोई अता-पता नहीं, फोन आने के बाद से ही उसका फोन स्वीचऑफ जा रहा था। लोकल से उतरते ही एक और आफत हमारा इंतज़ार कर रही थी। लोकल में सफर के दौरान कभी भी T.C से हमारा सामना नहीं हुआ था। मगर उस दिन उतरते ही T.C ने हमें पकड़ लिया और सीधे 1000 रूपये का जुर्माना कर दिया। हमारी लोकल की टिकट तो रजत के पास थी। मैंने उस T.C को समझाने का बहुत प्रयास किया, दिल्ली की टिकट भी दिखाई मगर वो मानने को राजी नहीं थी। तभी किसी अनजाने नंबर से कॉल आया मुझे समझ आ गया कि वो रजत का है। रजत का ही था उसने कहा -आंटी मेरा अब वहाँ तक पहुँचना ना मुमकिन है मैं बोरीवली स्टेशन पर रहूँगा और आपका सामान दे दूँगा। ( हमें पता ही नहीं था कि-ट्रेन बोरीवली भी रूकती है ) मैंने उस T.C की बात रजत से कराई तब वो हमें छोड़ी फिर हमने उसी से बांद्रा टर्मिनस की ओर निकलने का रास्ता पूछा (क्योंकि हम तो रजत के भरोसे थे हमें पता ही नहीं था रास्तों का)भागते दौड़ते स्टेशन से बाहर निकले तो पता चला कि-बांद्रा टर्मिनस स्टेशन यहाँ से दूर है। एक टैक्सी वाले से पूछा तो उसने कहा-"100 रुपया लूँगा..मैडम जल्दी सोच लो राजधानी निकलने में बस दो मिनट बाकी है....गारंटी है कि ट्रेन पकड़वा दूँगा।" अब मरता क्या नहीं करता एक सकेंड भी गवाए बिना मैं टैक्सी में बैठ गई। जब हम पहुंचे तो दंग रह गए क्योंकि वहाँ तक पैदल मात्र 5 मिनट का रास्ता था। खैर,टैक्सी ड्राईवर ने अपना वादा निभाया बिल्कुल ऐसी जगह उतारा जहाँ से चंद सीढियाँ उतरते ही ट्रेन सामने थी। ड्राईवर को पैसा पकड़ते हुए हम भागे ट्रेन धीमी रफ्तार से चल पड़ी थी लेकिन दरवाजे पर खड़े एक आदमी ने हमारी मदद की। हाथ बढ़ाकर सामान भी पकड़ा और हमें भी चढ़ने में सहायता की। हाँफते हुए हम अपनी कम्पार्टमेंट की ओर भागे क्योंकि करीब 10 बॉगी के बाद हमारा बॉगी था और ट्रेन आधे घंटे में बोरीवली पहुँच जाती और रजत तो हमें हमारी ही बॉगी में ढूँढ पाता। बोरीवली में रजत हमें मिल गया उसने हमें हमारा सामान दे दिया,उसी ने हमें एक ठंडे पानी की बोतल भी दी। हम माँ-बेटी चैन की साँस लिए...इस भाग-दौड़ में हमारा गला सुखकर काँटा हो चूका था...हमने सर्दी-जुकाम की परवाह किये बगैर फटाफट बोतल खोला और अपने गले में उढ़ेल लिया.....फिर अपनी-अपनी सीट पर पसर गए....होश ही नहीं आ रहा था....सबकुछ सपने सा था....ऐसा लग रहा था अभी आँख खुलेंगी और हम खुद को अपने घर में सुरक्षित पाएंगे। आधी घंटे कोई किसी से बात नहीं किया। इस बीच दिल्ली से घर वालों का कॉल पर कॉल आये जा रहा था। खुद को थोड़ा रिलैक्स करने बाद सबको फोन किया मगर बताये कुछ नहीं,घर पहुँचकर ही सबको सारी बात बताई।
अब ये तो हमारा किस्सा था रजत की कहानी तो अभी बाकी थी उसके साथ किया हुआ था ये बताएं बिना तो ये सफरनामा ख़त्म ही नहीं हो सकता। रजत ने कहा तो था कि 10 मिनट में ट्रेन आएगी मगर ट्रेन 45 मिनट बाद आई। ट्रेन के देर-देर से आने के कारण भीड़ बढ़ता रहा था। बड़ी मुश्किल से रजत सामान वाले कम्पार्टमेंट में चढ़ पाए था। वो भी बड़ी विकट अवस्था में,उसके एक हाथ में ब्रीफकेस था और दूसरे हाथ से वो दरवाजे का रॉड पकड़कर लटका हुआ था यानि ब्रीफकेस हवा में झूल रहा था वो खुद भी पूरी तरह बाहर की ओर लटका हुआ था। किसी ने सामान तक को पकड़ने में उसकी मदद नहीं की थी। ये बात रजत ने दो दिन बाद फोन पर बताया था। उसने आगे जो बताया वो इतना डरावना था कि मैं आज भी उस दृश्य के कल्पना मात्र से घबड़ाने लगती हूँ,उस बच्चें ने तो सहा था। वसई रोड से बांद्रा करीब एक-सवा घंटे का रास्ता है उतना दूर वो एक भरी ब्रीफकेस को पकडे हुए लटकता रहा था जब बिजली का खम्बा आता था तो उसे खुद को बचाने के लिए सिकोड़ना भी पड़ता था। ट्रेन लेट-लेट से आने के कारण चढ़ने वालों की ही संख्या थी उतरने वालो की नहीं,जब ट्रेन किसी स्टेशन पर रूकती तो एक मिनट के लिए उसके हाथों को आराम मिलता और फिर वही हालत। (इस वजह से महीनो तक उसके दोनों हाथ की कोहनियों में दर्द रहा) ये सब सुनकर मैंने उसे बहुत डाँटा-"मुर्ख लड़के सामान नहीं आता तो कोई प्रलय नहीं आ जाता अगर तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं ताउम्र जीते जी मरे के समान रहती" मेरी डांट सुनकर वो बोला-हाँ,आंटी मुझ से गलती हो गयी थी,मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसका फ़ोन भी किसी कारणवश स्वीचऑफ हो गया था तो वो बड़ी मिन्नत कर किसी से फ़ोन लेकर मुझे कॉल किया था। आज भी मैं जब इस घटना को याद करती हूँ तो खुद से ज्यादा रजत के लिए डर जाती हूँ....भगवान को लाख-लाख धन्यवाद करती हूँ कि-"आपने मेरे बच्चें की जान बचा ली उस दिन" वरना एक माँ को क्या जबाब देती मैं और खुद को भी....हम माँ-बेटी के सफर में कोई जोखिम नहीं था मगर रजत का सफर जोखिमों से भरा था जो कि उसे नहीं करना चाहिए था,सामान छूट भी जाता तो कोई बड़ा मसला नहीं था।आज की युवा पीढ़ी उतावलेपन में कुछ करने से पहले सोचती ही नहीं है। लेकिन उस दिन के बाद रजत ने कसम खाई कि-"ऐसा जोखिम कभी नहीं उठाऊंगा और बिना सोच-विचार किये कुछ नहीं करूँगा।" साथ ही साथ हम तीनो ने ये कसम खाई कि-"कभी भी ट्रेन या फ्लाईट पकड़ने के लिए लोकल ट्रेन से सफर नहीं करेंगे"
इन सब के वावजूद अगर आप मुंबई गए और लोकल ट्रेन का मज़ा नहीं लिया तो समझिये आपका मुंबई घूमना पूरा नहीं हुआ। अरे भाई, बदहवास भीड़ को देखकर यदि ट्रेन में चढ़ने की हिम्मत नहीं हुई तो कोई बात नहीं काम से काम स्टेशन पर बैठकर उन भागती-दौडती जिंदगियों को तो देख सकते हैं यकीन मानिये -"आप एक बार जिंदगी को नये सिरे से सोचने को मजबूर हो जायेगे "