बात उन दिनों की हैं जब मैं 9 वी क्लास में थी। मैं और पापा, दुमका ( झारखंड ) से मुजफ्फरपुर (बिहार) की ट्रेन में सफर कर रहे थे।उन दिनों रिजर्वेशन का खास मसला नहीं होता था। जेनरल कम्पार्टमेंट में भी सफर आरामदायक ही होता था। आज की जैसी आपा -धापी तो थी नहीं। ज्यादा से ज्यादा सफर जरूरतवश ही की जाती थी। ट्रेन में खोमचे वालों ( खाने -पीने का समान बेचने वाले ) का आना- जाना भी लगा रहता था। खाते-पीते सफर आराम से कट जाता था। बिहार की एक खास पकवान लिट्टी -चोखा उस लेन में ज्यादा से ज्यादा बिकने वाली लाज़बाब पकवानो में से एक होता था।
ट्रेन अपनी रफ्तार से चली जा रही थी ,रात के करीब आठ बजे थे, एक लिट्टी -चोखा बेचने वाला हमारी कम्पार्टमेंट में चढ़ा। अपनी लिट्टी- चोखे की तारीफ करता हुआ , वो बार बार पैसेंजरों को उन्हें खाने के लिए उकसाने की कोशिश कर रहा था। सबके पास जाकर बोलता -" भाई जी आप लेलो ,अंकल जी आप खा लो बस दस में चार दे रहा हूँ। " मगर कोई भी उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहा था। सब घर से लाए अपने खाने को खाने में लगे रहें। जब नौ बजने को आया तो अचानक उसके सुर में बदलाव आ गया ,उसने कहा -" अरे ,भाइयों एक घंटे में गोंडा स्टेशन आ जाएगा.. मैं वहाँ उतर जाऊँगा ..मेरा वही घर हैं न ...अब मेरी लिट्टी तो बिकी नहीं घर जाकर इसे फेकना ही होगा ....आप में से जो कोई भी भूखा हो और खाना चाहते हो वो आकर खा ले ...फेकने से अच्छा हैं किसी के पेट में चला जाए ....फ़िक्र ना करे मैं फ्री में खिलाऊँगा ....एक पैसा भी नहीं लूँगा। "
फिर क्या था सब भूखे भेड़िये की तरह उसकी लिट्टी पर टूट पड़े हर एक ने जी भरकर खाया ,उसने पापा से भी कहा -" अरे ,अंकल जी आप नहीं खोओगे ,अरे खाओ- खाओ में पैसे नहीं लूंगा "पापा मेरे बड़े मधुरभाषी थे उन्हेने बड़े प्यार से कहा -"अरे ,बेटा जी आप आने में देर कर दिए थे....हम तो आपके आने से पहले ही खाना खा चुके थे वरना लिट्टी तो मेरा पसंदीदा हैं.... आप बीस के चार भी देते तो खा लेता ....लेकिन अब नहीं ,आपकी लिट्टी फ्री हैं मेरा पेट तो नहीं " फिर पापा धीरे से मुझसे बोले -" बेटा मुझे तो दाल में कुछ काला लग रहा हैं ,आप चुपचाप जाकर ऊपर वाले बर्थ पर सो जाओं। " मैं सोने चली गई। मगर नींद कहाँ आ रही थी बस सोने का नाटक कर रही थी।
जब लिट्टी वाले की टोकरी खाली हो गई तब वो बड़े अड़ियल अंदाज़ में बोला -" क्युँ भईया सब का पेट भर गया न।" सब डकार मरते हुए खुश होकर बोले -" अरे भाई ,बहुत बहुत धन्यवाद तुमको ...आज तो मज़ा आ गया।" अब लिट्टी वाले ने फिर अपना सुर बदला -" भईया जी, आपके धन्यवाद का मैं आचार डालूंगा क्या .....धन्यवाद नहीं पैसे निकले ....दस का एक के हिसाब से....समझे।" अब बारी सभी के चौकने की थी ,सब एक सुर में बोले -" तुमने कहा था कि- फ्री हैं ?" उसने गंदी गाली देते हुए कहा -" बाप का माल समझे थे....एक घंटे से मैं सबकी मिन्नत कर रहा था कि -कोई तो गरीब पर तरस खा ले और मेरी कुछ लिट्टी तो बिक जाए ....मगर किसी को भूख नहीं थी और फ्री का सुनते ही सबके पेट में कुआ बन गया सब ठूँसने लगे .....अब पैसे निकालों नहीं तो एक एक को खींचकर ट्रेन से नीचे फेक दूंगा..... अरे, सच तो सिर्फ अंकल जी लोग बोल रहे थे ...चलो अंकल जी, आप सब ऊपर बर्थ पर जाकर सो जाओं.... अब मैं इनका पेट खाली करने वाला हूँ- वो पापा और उनके साथ ही बैठे दो तीन बुजुर्गो की तरफ देखते हुए बोला.... फिर मेरी तरफ देखते हुए बोला -अच्छा हैं बिटिया सो गई है ....चलो बिटिया, तुम अपना मुँह उस तरफ कर लो।" मैं समझ गई अब तो कुछ भयंकर होने वाला हैं क्योकि गोंडा के किस्से बड़े प्रसिद्ध थे ,मैंने झट मुँह फेर लिया।
वो जब लिट्टी खिला रहा था तो बड़े ही चालाकी से ये कहते हुए कि -" अरे भईया आपने तो अभी दो ही लिए दो और लेना " उसने सबकी लिट्टी की गिनती भी कर ली थी और सबसे कबुलवा भी लिया था, तो झूठ बोलने की गुंजाइश थी नहीं किसी के पास। जो लोग लालची तो थे मगर थोड़ा सरीफ थे, वो तो डरकर पैसे निकालने लगे।मगर कुछ लोग जो खुद को उससे बड़ा गुंडा समझते थे भिड़ गए उससे। बाता -बाती ,गाली -गलौज,हाथापाई तक होने लगा। ट्रेन के गोंडा स्टेशन पर रुकाते ही उस लिट्टी वाले ने जोर से मुँह से कुछ आवाज़ निकली ( शायद कोई कोडबर्ड था )उसकी आवाज़ सुनते ही एक मिनट भी नहीं लगा सेकड़ो भेंडर्स इकट्ठे हो गए ,यात्रियों को खींच खींचकर ट्रेन से उतारने लगे। रलवे के स्टाफ ,टी.सी ,सब आ गए। टी. सी. ने सबको समझाया- इनसे टककर लेने का कोई फायदा नहीं... तुम सब जब तक पैसे नहीं दोगे ट्रेन आगे नहीं बढ़ेगी... पाँच मिनट में ही सारे गाँववाले भी इकट्ठे हो जाएंगे फिर तो मार -काट ही मच जाएगा। आख़िरकार यात्रियों को पैसे देने ही पड़े वो भी दस के एक के हिसाब से। पुरे कम्पार्टमेंट में बस सात लोग ( मुझे और पापा को लेकर ) थे जिन्होंने लिट्टी नहीं खाई थी ,हम ट्रेन में ही थे मगर किसी अनहोनी के डर से हमारा गला भी सुख रहा था। खैर ,आधे घंटे के लफड़े के बाद ट्रेन वहाँ से रवाना हुई और हमारी जान में जान आई।
फ्री के खाने का संस्कार तो हमारा था नहीं फिर भी उस दिन ये दो कसम जरूर खा ली मैंने कि -" भूख से मर जाऊँगी मगर फ्री का नहीं खाऊँगी और दूसरी कभी भी ट्रेन में भेंडर्स से या यात्रियों से ही बेवजह मुँह नहीं लगाऊँगी। "ये कसम आज तक निभाती हूँ।
जब लिट्टी वाले की टोकरी खाली हो गई तब वो बड़े अड़ियल अंदाज़ में बोला -" क्युँ भईया सब का पेट भर गया न।" सब डकार मरते हुए खुश होकर बोले -" अरे भाई ,बहुत बहुत धन्यवाद तुमको ...आज तो मज़ा आ गया।" अब लिट्टी वाले ने फिर अपना सुर बदला -" भईया जी, आपके धन्यवाद का मैं आचार डालूंगा क्या .....धन्यवाद नहीं पैसे निकले ....दस का एक के हिसाब से....समझे।" अब बारी सभी के चौकने की थी ,सब एक सुर में बोले -" तुमने कहा था कि- फ्री हैं ?" उसने गंदी गाली देते हुए कहा -" बाप का माल समझे थे....एक घंटे से मैं सबकी मिन्नत कर रहा था कि -कोई तो गरीब पर तरस खा ले और मेरी कुछ लिट्टी तो बिक जाए ....मगर किसी को भूख नहीं थी और फ्री का सुनते ही सबके पेट में कुआ बन गया सब ठूँसने लगे .....अब पैसे निकालों नहीं तो एक एक को खींचकर ट्रेन से नीचे फेक दूंगा..... अरे, सच तो सिर्फ अंकल जी लोग बोल रहे थे ...चलो अंकल जी, आप सब ऊपर बर्थ पर जाकर सो जाओं.... अब मैं इनका पेट खाली करने वाला हूँ- वो पापा और उनके साथ ही बैठे दो तीन बुजुर्गो की तरफ देखते हुए बोला.... फिर मेरी तरफ देखते हुए बोला -अच्छा हैं बिटिया सो गई है ....चलो बिटिया, तुम अपना मुँह उस तरफ कर लो।" मैं समझ गई अब तो कुछ भयंकर होने वाला हैं क्योकि गोंडा के किस्से बड़े प्रसिद्ध थे ,मैंने झट मुँह फेर लिया।
वो जब लिट्टी खिला रहा था तो बड़े ही चालाकी से ये कहते हुए कि -" अरे भईया आपने तो अभी दो ही लिए दो और लेना " उसने सबकी लिट्टी की गिनती भी कर ली थी और सबसे कबुलवा भी लिया था, तो झूठ बोलने की गुंजाइश थी नहीं किसी के पास। जो लोग लालची तो थे मगर थोड़ा सरीफ थे, वो तो डरकर पैसे निकालने लगे।मगर कुछ लोग जो खुद को उससे बड़ा गुंडा समझते थे भिड़ गए उससे। बाता -बाती ,गाली -गलौज,हाथापाई तक होने लगा। ट्रेन के गोंडा स्टेशन पर रुकाते ही उस लिट्टी वाले ने जोर से मुँह से कुछ आवाज़ निकली ( शायद कोई कोडबर्ड था )उसकी आवाज़ सुनते ही एक मिनट भी नहीं लगा सेकड़ो भेंडर्स इकट्ठे हो गए ,यात्रियों को खींच खींचकर ट्रेन से उतारने लगे। रलवे के स्टाफ ,टी.सी ,सब आ गए। टी. सी. ने सबको समझाया- इनसे टककर लेने का कोई फायदा नहीं... तुम सब जब तक पैसे नहीं दोगे ट्रेन आगे नहीं बढ़ेगी... पाँच मिनट में ही सारे गाँववाले भी इकट्ठे हो जाएंगे फिर तो मार -काट ही मच जाएगा। आख़िरकार यात्रियों को पैसे देने ही पड़े वो भी दस के एक के हिसाब से। पुरे कम्पार्टमेंट में बस सात लोग ( मुझे और पापा को लेकर ) थे जिन्होंने लिट्टी नहीं खाई थी ,हम ट्रेन में ही थे मगर किसी अनहोनी के डर से हमारा गला भी सुख रहा था। खैर ,आधे घंटे के लफड़े के बाद ट्रेन वहाँ से रवाना हुई और हमारी जान में जान आई।
फ्री के खाने का संस्कार तो हमारा था नहीं फिर भी उस दिन ये दो कसम जरूर खा ली मैंने कि -" भूख से मर जाऊँगी मगर फ्री का नहीं खाऊँगी और दूसरी कभी भी ट्रेन में भेंडर्स से या यात्रियों से ही बेवजह मुँह नहीं लगाऊँगी। "ये कसम आज तक निभाती हूँ।