गुरुवार, 2 जुलाई 2020

कभी भी ना भूलनेवाला डर का सफर...

  

    यूँ तो जीवन का हर पल अनिश्चितताओं से भरा होता है ,कब क्या हो जाएं पता नहीं। वैसे ही जब हम कही यात्रा पर निकलते हैं तो हमें नहीं पता होता कि-आगे क्या होगा। फिर भी यात्रा पर निकलते वक़्त हम अमूमन घर से अच्छा ही सोचकर निकलते है कि -"हमारा सफर सुखद होगा सुरक्षित होगा "ये अलग बात है कि-कभी-कभार सफर में कुछ चाहा या अनचाहा घटना घटित हो जाता हैं।
    मगर इस बार मेरा ट्रेन का सफर जितना भयावह था,अब से पहले कभी नहीं रहा। मुंबई से दिल्ली जाने के सफर की तैयारी करते वक़्त पहली बार सफर के अनिश्चितता का आभास और डर पहले से ही हावी हो चूका था (लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद मुंबई से दिल्ली अपने परिवारवालों के पास जाना था) टिकट बनने के दिन से ही एक दहशत मन मस्तिष्क पर हावी हो गया था। डर किससे रहे है ये भी समझ नहीं आ रहा था। ट्रेन में चोरी डकैती या एक्सीडेंट जैसी घटनाओं से क्या डरना,इन अनहोनियों के साथ सफर करने की तो आदत बन चुकी हैं। जहां तक मौत से डरने की बात है तो उससे क्या डरना वो तो कही भी किसी भी वक़्त आ सकता हैं। फिर भी एक अनदेखा सा दुश्मन हर पल आस पास नजर आ रहा था।
    घर से निकलते वक़्त हम माँ बेटी ने खुद को पूरी बाजु के कपडे ,मास्क,दस्ताने,चश्मे आदि से हर तरफ से ऐसे ढक लिया था जैसे जंग पर जाते समय सिपाही खुद की सुरक्षा के लिए सुरक्षा कवच पहनते हैं। हम सचेत थे,ताकि वो मौत का वायरस कही से भी हमारे शरीर में प्रवेश ना कर सके। अपनी रक्षा के लिए हाथ में एक छोटा सा गन (स्नेटाइजर का बोतल) भी ले रखा था ताकि हम उस अनदेखे दुश्मन पर वार कर सकें। टेक्सी में बैठते वक़्त पूरी टेक्सी को सेनेटाइज कर खुद को ये यकीन दिलाने की कोशिश की कि -ये क्षेत्र दुश्मनों से रहित हो गया। अगला पड़ाव ट्रेन,वहां भी हमने बड़ी सावधानी से अनदेखे दुश्मन पर वार कर उसे मारने की कोशिश की। ये सब करते हुए समझ ही नहीं आ रहा था कि -हम मार किसे रहे हैं?आज से पहले ट्रेन के सफर के सहयात्री थोड़ी देर के लिए ही सही अपने परिवार से लगते थे मगर आज वही सहयात्री (खास तौर पर जो लापरवाह थे)चलते फिरते मौत के वाहक नजर आ रहे थे।
   जीवन में मैं कभी भी किसी भी चीज़ से नहीं डरी ,डरना मैंने सीखा ही नहीं,जीवन में अब से पहले कभी डर का एहसास ही नहीं हुआ था। मगर पहली बार मुझे डर लग रहा था ।जीवन के इस अनोखे,डरावने सफर के 20 घंटे का एक एक पल दहशत भरा था। क्योँकि अब से पहले किसी भी बिपदा या दुश्मन का सामना करते वक़्त एक इत्मीनान रहता था कि " अगर कुछ बुरा हुआ तो सिर्फ मेरा होगा" मगर इस बार ये डर कि -ये अनदेखा दुश्मन मुझे भी मौत का वाहक तो नहीं बना लेगा, अपनों के पास पहुंचने की बेताबी में " कहीं मैं उनके लिए बिपति की वजह तो नही  बन जाउंगी" खुद का अहित हो कोई बात नहीं मगर अपनों का अहित मेरी वजह से...ये सोचकर भी मैं काँप जा रही थी। 
    खैर,भगवान का स्मरण करते हुए हम दिल्ली पहुंचे तो अपनों को गले भी ना लगा सकें,उन्हें छू भी ना सकें,खुद को उनसे ऐसे दूर रखा जैसे हमें कोई "छूत" का रोग लगा हो। फिर पास-पास रहते हुए भी 14 दिन अछूतों की तरह अलग अलग रहकर अलगाव का दंश झेलना,वो 14 दिन का सफर जो रुका हुआ था उसका एक एक दिन जब गुजर जाता तो ये ढाढ़स होता कि-"शायद दुश्मन हमारे शरीर में प्रवेश नहीं कर पाया हैं और हम जीने के काबिल हैं और दूसरों को भी जीवन देने के काबिल हैं।" 
   कहने को तो उस सफर की समय अवधि 20 घंटे की थी मगर हमारा सफर 20 दिन का था,सफर शुरू करने के पहले का पांच दिन सफर पर निकलने की हिम्मत जुटाने का,एक दिन का ट्रेन का सफर और 14 दिन इस इंतजार का कि-"कही मौत के वायरस ने हमें छुआ तो नहीं।"
    जो बीस दिन के डर और दहशत के सफर से हम गुजरे,उसी पीड़ा से ना जाने कितने गुजरे होंगे और अभी भी गुजर रहे हैं।अपनों के पास होकर भी अपनों से नहीं मिल पाने की पीड़ा इस बात का एहसास करा रही थी कि -" यकीनन प्रकृति हमें अपनों की अवहेलना करने की गुनाह की सजा दे रही  हैं। 
    परन्तु मन सवाल कर रहा था -"ये गुनाह हमनें तो कभी नहीं किया ,फिर हमारे साथ ऐसा क्यों ?जबाब मिला -"अक्सर जौ के साथ घुन भी पीसते हैं" क्योँकि घुन जौ के साथ जो रहता हैं। हम भी कुछ लापरवाह और गैरजिम्मेदाराना लोगो के साथ रहते हैं और ख़ामोशी से उनके गलतियों को देखते रहते हैं तो हमें भी सजा मिलनी लाजमी हैं न।  मेरे पापा एक भजन गया करते थे -
"आदमी आदमी को सुहाता नहीं 
आदमी से अरे, डर रहा आदमी " 
आज ये सौ फीसदी सत्य हो चूका हैं....और हम सब इसके गवाह बन चुके हैं..
" जीवन में कभी भी ना भूलनेवाला डर का सफर,मगर साथ ही साथ ये विश्वास
 कि  हमनें कुछ गलत नहीं किया हैं तो हमारे साथ कुछ बुरा हो ही नहीं सकता.... "